Saturday, December 19, 2009

बिग बॉस का घर

ये इस साल की मेरी आखरी पोस्ट है ;चाहती तो हूँ कि हर हफ़्ते बल्कि हर दूसरे दिन कुछ न कुछ पोस्ट करूँ लेकिन हर रचना लोगों की राय से वाकिफ़ होना चाहती है ,ये उसकी ख्वाहिश भी होती है और एक कसौटी भी लेकिन ये भी एक कड़वा सच है कि आज इंसां के पास वक़्त ,नेकियों के अलावा और बहुत कुछ है ;ऐसे में आप ,हम मुबारकबाद के मुस्तहक़ हैं जो एक दूजे से तबादला-ए-ख़यालात कर लेते हैं मगर ये भी इंसानी फ़ितरत है कि जब वो घूमने निकलता है तो जो दोस्त क़रीब रहते हैं उनसे तो मुलाक़ात करते चलता है लेकिन जो रिश्तेदार दूर रहते हैं उनके लिए '' फिर मिल लेंगे '' सी सोच रखता है ;सही कहा ना? वैसे ही हम किसी के ब्लॉग पर जाकर लेटेस्ट पोस्ट तो पढ़ लेते हैं और पुरानी पोस्ट के लिए सोचते हैं "फिर पढ़ लेंगे" ये बात मुझ पर भी लागू होती है इसलिए मैं कुछ वक़्त तक इंतज़ार करती हूँ "फिर मिलने वालों" का .पर हैरत तो मुझे तब होती है जब कोई मुसाफ़िर भटकते,भटकते या खोजते-खोजते प्रथम पोस्ट तक पहुँच ही जाता है,मुशायरे,कवि-सम्मलेन के लास्ट तक बैठे रहने वाले आखरी श्रोता की तरह,ऐसे हैरतज़दा करने वाले अदीबों का तो मैं जितना भी शुक्रिया अदा करूँ ,कम है ;हालाँकि हैं ऐसे भी जुनूनी ,सबूत मौजूद हैं आपके मेरे ब्लॉग पर. यही लोग जज़्बा पैदा करते हैं रोज़ कुछ कहने का लेकिन बात फिर वहीँ पहुँच जाती है कि हर रचना कुछ वक़्त चाहती है

तो इसीलिए मेरी इस साल की ये अंतिम ग़ज़ल निकली है लम्बे इंतज़ार के बाद ठीक उसी तरह जैसे हमारे कुछ महान नेता निकले थे अपने -अपने बिलों से 26/11 के आतंकवादी हमले के इतने दिनों बाद जब सब कुछ सामान्य हो चुका था और वक़्त था क्रेडिट लेने का कि हमारी वजह से .हमारे प्रांत ,हमारी ज़ात ,भाषा वाले सैनिकों ने ये किया...वो किया और सियासत शुरू हो गयी शहीदों की शहादत पर .इसीलिए ये ग़ज़ल उसी आतंकवादी हादसे की अगली कड़ी और उसके बाद होने वाली राजनीति की एक प्रतिक्रिया है .मैं पुनः तमाम हिन्दुस्तानी कमांडोज़ और शहीदों का आभार व्यक्त करते हुए नज्र कर रही हूँ हम भारतवासियों का दर्द ,रोष .अफ़सोस ,सवाल ...और आगामी नव-वर्ष की अग्रिम शुभकामनाओं के साथ अंतिम पेशकश .



'देश' ख़तरे में हो तो छुप जायेंगे ,डर जायेंगे
'कुर्सियां' ख़तरे में हों फिर मार दें ,मर जायेंगे

जब ख़बर आती है के हालात अब क़ाबू में हैं
पुरसिशे-हालात को ये तब निकलकर जायेंगे

रोटियाँ लाशो पे कितनी सेक कर ये खा चुके
इतने भूके हैं के अब तो देश भी चर जायेंगे

किस तरह ख़ुद को बचाएं जब कहें ख़ुद नाख़ुदा
हम तो डूबेंगे सनम तुम को भी लेकर जायेंगे

ये शेर उन मासूम परिंदों को समर्पित जो हमले में घायल हुए या मारे गए .पर आज भी सैंकड़ों की तादात में सुबह -शाम ताज होटल पर उनके हमकौम सफेद कबूतर नज़र आते हैं ,आतंक का जवाब बनकर ;

खौफ़ हो,पहरे हों पर ये "शाहजहाँ के हमवतन"
ताज के दीदार को अब भी कबूतर जायेंगे

बम फटा,सत्यम घटा ये तो अभी है जनवरी
हादसे कितने दिसम्बर तक यूँ चलकर जायेंगे

ये शेर मैंने साल की शुरुआत में जिस शंका के साथ कहा था वो गलत नहीं थी .ना जाने ये साल कितने हादसात झेल चुका है और जाते जाते अलग राज्यों ..तेलंगाना,विदर्भ से ज़ख्म दे रहा है,और अब ग़ज़ल का आखरी शेर ..कहावत यूँ है के "ज़र,ज़मीं,जेवर और जोरू कुछ ना साथ जाएगा" ये बात तो हम औरतें भी जानती हैं और हम पर भी लागू होती है तो मैंने इसमें एक छोटा सा संशोधन किया है और अपनी अदीब बहनों को नज्र करती हूँ

किसलिए हिर्सो-हवस मालूम है जब साथ में
ज़र,ज़मीं,दौलत के ज़ेवर और ना 'शौहर' जायेंगे

और मक़ता देखिये ;वैसे भी इन दिनों रोज़ देख ही रहे हैं कलर्स चैनल पर,

ये अदब की बज़्म है 'बिग बॉस का घर' तो नहीं
बाहया घर से चले थे बा'हया'घर जायेंगे

पुरसिशे -हालात = हाल चाल जानना .
हिर्सो-हवस = लालच
ज़र = सोना
नाख़ुदा = नाविक
हमवतन = एक ही देश के


हमारा ये अदबी जहाँ बेहयाई से बचा रहे [ यही फ़र्क़ है अदब और ग्लैमर में ] और हर सूरत में बा हया रहे इसी दुआ के साथ आपको नए साल की अग्रिम हार्दिक शुभकामनायें .

Thursday, November 26, 2009

हर कोई है ग़मज़दा


बहुत तवील सफ़र रहा और काफी तकलीफदेह भी,हर कोई हैरान और परेशां,बहुत सी दास्तानें सुनाना बाक़ी है और आप सबको पिछली पोस्ट का जवाब देना भी,लेकिन आज नहीं क्योंकि आज से ठीक एक साल पहले मेरे शहर मुंबई ने आतंक और खौफ़ का ऐसा सफ़र तय किया था जिसकी वहशतनाक दास्ताँ ने न केवल हिन्दुस्तान बल्कि तमाम दुनिया को हिला कर रख दिया था आज भी शहीदान के परिवारवाले और अपनों को खोने वाले जिस कर्ब और तकलीफ़ से गुज़र रहे होंगे उसकी कल्पनामात्र से ही कलेजा मुंह को आ जाता है,अल्लाह उनकी रूह को सुकून और उनके परिवार को हौसला दे.

वक़्त बीत गया लेकिन मेरा शहर .मेरा वतन ......आह ! उनके लिए जाँ-निसार करने वालों की याद में आज तक सिसक रहा है मैं तमाम ब्लोग्गर्स की तरफ से उन शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करती हूँ जो ज़ात प्रांत,मज़हब,भाषा से ऊपर उठकर अपने देश और अपने देशवासियों के लिए जान पर खेल गए:

आज तमाम मुम्बईकर इसी दर्द भरी कैफियत से गुज़र रहे होंगे....

आजकल मेरा शहर आराम से सोता नहीं
हर कोई है ग़मज़दा ख़ुश,कोई भी होता नहीं

हम अगर मज़हब,सियासत को जो रखते अलहदा
फिर कोई इंसानियत को इस क़दर खोता नहीं

धर्म ने ये कब कहा रंग दो ज़मीं को खून से
कोई मज़हब बीज नफ़रत के कभी बोता नहीं

दीन,ईमां,ज़ात कब होती है दहशतगर्द की
ये किसी का बाप,शौहर,भाई और पोता नहीं

ये शहादत का भला है कौन सा रस्ता नया ?
क्यों कोई बच्चों के ज़हनों से भरम धोता नहीं

जाने कैसे संगदिल आक़ा हैं ये आतंक के
देखकर जिनका तबाही दिल कभी रोता नहीं

अस्ल सैनिक सिर्फ अपने देश का होता''हया'
वो बिहारी और बस महाराष्ट्र का होता नहीं

अल्हदा=अलग,तवील=लम्बा,कर्ब=कष्ट,


'काश' !!! दुनियां से जुर्म,आतंक,फिरकापरस्ती,सरहदें,स्वार्थ और नफरतें हमेशा-हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएं... "काश"?

Saturday, November 21, 2009

शाख़ से फूल की तरह झरती गई


कल से तीन दिनों तक मुंबई से बाहर हूँ. मुशायरे के सिलसिले में आजमगढ़ और पटना जाना है. सोचा तो था के आ कर कुछ नया पोस्ट करुँगी, के तभी तुलसी भाई पटेल जी का मेल आया के लता जी आपकी पोस्ट का इंतज़ार है.उन्हें जवाब देना चाहा लेकिन विफल रही, फिर सोचा की लैपटॉप बंद कर दूं लेकिन दिल नहीं माना,क्यूँ की वापस आकर भी दो दिसंबर तक शूटिंग में व्यस्त रहूंगी इसलिए मुझे लगा की तब तक बहुत देर हो जायेगी तो लीजिये पेश हैं एक छोटी सी ग़ज़ल आप सबकी मुहब्बतों के नाम, जिसका श्रेय तुलसी भाई पटेल जी को देना चाहूंगी.

(मतला हिंदी को तमाशा बनाने वालों के नाम एक जवाब के तौर पर आप तमाम हिन्दीप्रेमियों की तरफ से)

ज़िन्दगी चाहे जितनी बिखरती गयी
पर मैं 'हिंदी' की तरह संवरती गयी

हाथ में एक दर्पण अदब का भी है
देख कर जिसमें ख़ुद को निखरती गयी

उसने चाहत का इज़हार जब भी किया
मैं सियासी अदा से मुकरती गयी

ज़िक्र जब भी सियासत का करने लगूं
डायरी मेरी पल में सिहरती गयी

उसकी महकी हुई सोहबतों में 'हया '
शाख़ से फूल की तरह झरती गयी

Tuesday, November 10, 2009

गोपियाँ रक्स करती रहीं


दीपावली जा चुकी लेकिन ब्लॉग जगत अब भी रौशन है आप अदीबों के ज़हनी चरागों से निकली अशआर की रौशनी से ;दीपावली इतनी शायराना होगी सोचा न था ;आयोजक थे सुबीर जी और मुझे आमंत्रित करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी नीरज गोस्वामी जी को जो हैं तो मेरे ममेरे भाई लेकिन सगे से बढ़ कर. अभिनय और शायरी का शौक़ उधर से ही इधर हस्तांतरित हुआ है ;वो भी एक लम्बी दास्ताँ है जो बाद में बताउंगी ,हालांके बहुत सी दास्तानें सुनाना बाकि है जिनका मैंने वादा किया था ;क्यों नहीं सुना पायी ये भी ये भी 'बाद में बताउंगी ' :))

भैय्या के कहने पर पहले तो मैंने टालमटोल से काम लिया लेकिन फिर सोचा की दिमागी मशक्क़त भी ज़रूरी है जैसा कि मैंने सुबीर जी के ब्लॉग में लिखा है के खुद को आज़माते रहना चाहिए तो बस तरही मुशायरे में शामिल होने का सोचा और इक ग़ज़ल हो गयी वो ज़माना याद आ गया जब मेरे गुरु मरहूम राही शहाबी मुझे मिसरा दिया करते थे मश्क़ के लिए और जब मैं शेर कहती थी तो डांट मिलती थी 'ये कोई शेर है ?'हालाँकि बहुत कम समय तक उनका मार्गदर्शन रहा क्योंकि उनकी और मेरी फिक्रो -सोच में काफी फ़र्क़ था ;जो अक्सर एक मर्द शायर और महिला शायर की सोच में हो सकता है और होना भी चाहिए तो बस इस्लाह का सिलसिला ख़त्म हो गया और मैं जयपुर से मुंबई आ गयी. अलिफ़ लैला सीरियल में अभिनय करने ;तब से एक अरसे बाद अब किसी तरही मुशायरे में हिस्सा लिया है और यकीन जानिए बहुत लुत्फ़ आया.

आपकी दुआओं ने ताजगी दी ;गोके आप मेरी ये ग़ज़ल सुबीर जी के ब्लॉग में पढ़ चुके हैं लेकिन एक बार फिर शाया कर रही हूँ अपने ब्लॉग में भी कुछ और ताजा अशआर के साथ तो ग़ज़ल का मतला समात फरमाएं ;

जब अँधेरे अना में नहाते रहें
दीप जलते रहें ,झिलमिलाते रहें

रात लैला की तरह हो गर बावरी
बन के मेहमान जुगनू भी आते रहें

रुह रौशन करो तो कोई बात हो
कब तलक सिर्फ चेहरे लुभाते रहें ?

इक पिघलती हुई शम्म कहने लगी
उम्र के चार दिन जगमगाते रहें

फ़िक्र की गोपियाँ रक्स करती रहीं
गीत बन श्याम बंसी बजाते रहें

कोई बच्चों के हाथों में बम दे चले
वो पटाखा समझ खिलखिलाते रहें

दूध ,घी ,नोट ,मावा के दिल हो "हया".
अब तो हर शै मिलावट ही पाते रहें

नोट;;लैल रात को कहते हैं और रात काली होती है ;लैला का नाम इसीलिए लैला हुआ के वो काली थी
अना -घमंड
रक्स -नृत्य

और ये वो शेर हैं जो हो तो गए थे लेकिन मैंने उस पोस्ट में भेजे नहीं थे वो भी सुन लीजिये...मतले में तरमीम के साथ ...

अब चलो खुद को यूँ आज़माते रहें
शेर कहते हुए मुस्कुराते रहें

मश्क़ भी है ज़रूरी यही सोच कर
हम गिरह प गिरह इक लगाते रहें

रात भी ढल चुकी चाँद भी जा चुका
हम घड़ी को कहाँ तक मंनाते रहें

जब कमाना भी है ,घर चलाना भी है
क्या संवरते औ ख़ुद को सजाते रहें

प्यार की रौशनी और शफ्फाफ़ हो
गर वफ़ा में हया भी मिलाते रहें
.

Thursday, October 15, 2009

ये तितली

एक तरफ दीपों के त्यौहार की सजावट तो दूसरी तरफ चुनावी माहौल की गिरावट ,गोया खूबसूरत मखमल पर पैवंद लग गया हो ;ख़ुदा करे सब शांति से संपन्न हो जाये ;कहीं मेरी ग़ज़ल फिर न सिहर के कह उट्ठे ;





अंधेरों मैं जो आज इक रौशनी मालूम होती है
ये बस्ती अम्न की जलती हुई मालूम होती है

सियासत कैसे गंदे मोड़ पे लायी है इंसां को
के अब इंसानियत दम तोड़ती मालूम होती है

ख़ुदा के नाम पे इंसान की हैवानियत देखो
अजां से जंग करती आरती मालूम होती है

हम उनकी दिल्लगी को भी समझते हैं लगी दिल की
उन्हें दिल की लगी भी दिल्लगी मालूम होती है

गुलों का छोड़ कर दामन ये क्यों बैठी है काँटों पे
ये तितली तो बहुत ही दिलजली मालूम होती है

हवादिस ने मेरे चेहरे पे ऐसे नक़्श छोड़े हैं
मुझे अपनी ही सूरत अजनबी मालूम होती है

इधर दिल है,उधर दुनिया नहीं मालूम क्या होगा
"हया"अब आज़माइश की घड़ी मालूम होती है.

अजां -अजान
हवादिस -हादसे

आप सभी को दीपावली की अग्रिम शुभकामनायें

Friday, September 25, 2009

दुआ चाहिए

मुझे पढ़ने वाले ,समझने वाले ,हौसला अफजाई करने वाले तमाम ब्लॉगर्स का मैं तहे-दिल से शुक्रिया अदा करती हूँ जो अपने बेशकीमती कमैंट्स से मुझे नवाज़ते हैं ;कुछ तो रूह में उतर जाते हैं हालांकि सबका ज़ाती तौर पर जवाब नहीं दे पाती इसके लिए शर्मिन्दा भी हूँ पर आप सबके नाम मुझे बखूबी याद हो गए हैं. मैंने वादा किया था के कई सम्मेलनों की दास्ताँ आप तक पहुंचाऊंगी लेकिन अभी उसमे वक़्त है,,ये सिलसिला इस पूरे महीने चलने वाला है लेकिन तब तक आप से गुफ्तगू न हो ये नहीं चल सकता ..तो लीजिये पेशे -खिदमत है एक छोटी सी ग़ज़ल आप सबकी मुहब्बतों के नाम



ज़िन्दगी में भला और क्या चाहिए
उसकी रहमत तुम्हारी दुआ चाहिए

चाहती हूँ दिलूँ में महकती रहूँ
मैं हूँ खुशबू वफ़ा की हवा चाहिए

मैं ग़ज़ल तो कहूँगी मगर शर्त है
सुनने वाला कोई आपसा चाहिए

हादसों से तो मिलना बहुत हो चुका
आपसे भी तो मिलना ज़रा चाहिए

आपने जब दुआ दी तो ऐसा लगा
आपको भी अदब में "हया "चाहिए .

शुक्रिया

मुझे तुलसी भाई पटेल जी के बच्चों की तरफ से एक बहुत प्यारा मेल मिला था ,,इस ग़ज़ल का तीसरा शेर ख़ास तौर से उन बच्चों के नाम ;जो के छोटे हैं मगर शेर खूब समझते हैं इस दुआ के साथ

सभी को समझे तू अपना कोई बुरा ना लगे
ख़ुदा करे तुझे इस दौर की हवा ना लगे


Monday, September 14, 2009

हिंदी दिवस


हिंदी दिवस पर समस्त हिंदी प्रेमियों और हिन्दुस्तानियों को बधाई.सोचा तो था के सुबह सुबह मुबारकबाद पेश करुँगी लेकिन कवि सम्मेलनों का सिलसिला चालू है,पूरा हिंदुस्तान हिन्दीमय होगया है,हिंदी को याद करने के नए नए तरीके ढूंढे जा रहे है,हर ऑफिस हर विभाग में हिंदी से सम्बंधित कार्यक्रम आयोजित किये जा रहे है,कहीं खुद को राष्ट्रभाषा प्रेमी साबित करने के लिए तो कहीं बजट में सरकार को हिंदी के ऊपर हुआ ख़र्चा दिखाने के लिए,कवियों की चांदी हो रही है ;मै भी कुछ कवि सम्मलेन पढ़ चुकी हु कुछ पढ़ने वाली हूँ , इस पूरे महीने हिंदी पखवाड़ा मनने तक, सब कार्यक्रमों की दास्ताँ बाद में बताऊंगी अभी हिंदी भाषा की विभिन्न स्थितियों पर एक एक करके नज़र डालिए :

१) हिंदी की कसक :-

सोचा न था मगर मुझे आभास हो गया
बेघर हूँ अपने घर में ये विश्वास होगया
सीमित है पुस्तकों के ही पन्नो तलक ये अब
हिंदी में बात करना तो इतिहास होगया

२)हिंदी ज़रूरी है क्यूंकि :-

अगर हिंदी समझते हो ग़ज़ल फिर रास आयेगी
सुहानी कल्पना चलकर तुम्हारे पास आयेगी
सितारे इश्क़ फरमाएंगे,चंदा घर बुलाएगा
कला,तहज़ीब भी मिलने तुझे बिंदास आयेगी.

३)क्यूकि भाषा एक तहजीब है और नेमत भी:-

सभी के पास उसकी रहमतों का धन नहीं होता
जो होता भी है तो फूलों के जैसा मन नहीं होता
के जो लोगो के ग़म, तकलीफ और जज़्बात को समझे
वही होता है कवि, हर बाग़ वृंदावन नहीं होता

४)क्यों मैंने सच कहा न? :-

ह्रदय के ग्रन्थ से निकले हितैषी है वही रचना
किसी हिंदी विरोधी के घृणित सन्देश से बचना
हो भाषाविद 'हया' लेकिन सरलता तो हो भाषा में
कभी तो राष्ट्र भाषा बोलिए,मैंने कहा सच न?

५)तो बोलिए हिंदी है हम...........वतन है हिनुस्तान हमारा:-

यहाँ पर राम बसता है,यहाँ रहमान बसता है
यहाँ हर ज़ात का,हर कौम का इन्सान बसता है
जो हिंदी बोलते है बस वही हिन्दू नहीं होते
वही हिन्दू हैं जिनके दिल में हिंदुस्तान बसता है


" जय हिंद"

Monday, September 7, 2009

जुर्म अब ईमान.....



आदमी शैतान होता जा रहा है
क्या उसे भगवान होता जा रहा है

ये निठारी काण्ड तौबा देख कर हा!
ख़ुद ख़ुदा हैरान होता जा रहा है

हैं मेरे हालत तो ईराक़ जैसे
हौसला ईरान होता जा रहा है

धर्म तो नेताओं के हत्थे चढ़ा है
जुर्म अब ईमान होता जा रहा है

मैच फिक्सर या पुलिस की जेब में अब
नोट ही मेहमान होता जा रहा है

देन है उसकी हुनर के शोहरतें फिर
क्यों उसे अभिमान होता जा रहा है

वो जो मुझ पर तंज़ करता है 'हया' जी
ख़ुद ही बेईमान होता जा रहा है

Tuesday, August 25, 2009

मुहब्बत हूँ




मेरे दिल पर किसी की भी हुकूमत चल नहीं सकती
मुहब्बत हूँ मेरे आँचल में नफ़रत पल नहीं सकती

करोगे इश्क़ नफ़रत से तो धोखा खाओगे इक दिन
मुहब्बत नाम की औरत कभी भी छल नहीं सकती

उन्हें हिंसा गवारा है, हमें इंसान प्यारा है
कभी इंसानियत खूनी सड़क पर चल नहीं सकती

मैं जब कुछ कर नहीं सकती तो फिर ये सोच लेती हूँ
मुक़द्दर में यही है और होनी टल नहीं सकती

न जाने कौन है जिनको बुराई रास आती है
'हया' को तो गुनाह की एक पाई फल नहीं सकती

Friday, August 7, 2009

औरत हूँ आईना नहीं


पहले तो अपने आप से नज़रें मिलाईये
फिर चाहे हम पे शौक़ से तोहमत लगाईये

मेहनत की भट्टियों में झुलसना तो छोडिये
रिश्तों की आंच में ज़रा तप कर दिखाईये

औरत हूँ आईना नहीं जो टूट जाउंगी
इन पत्थरों से और किसी को डराईये

बनना है ग़र अमीर तो बस इतना कीजिए
ज़िस्मों की क़ब्र खोद के किडनी चुराईये

अशआर तो होते ही सुनाने के लिए हैं
लेकिन 'हया, के साथ इन्हें गुनगुनाईये

Monday, July 27, 2009

बीवियां तो नहीं



नफरतों की कमी यां वहां तो नहीं
पर मुहब्बत भी कम शय मियां तो नहीं

क्या गिराएंगी यकजहतियों के समन
ये हवाएं हैं ये आंधियां तो नहीं

इतनी भी जी हुजूरी नहीं है भली
कुरसियां हैं जी ये बीवियां तो नहीं

उनको नेता कहा तो ख़फा हो गए
नाम ही है दिया गालियां तो नहीं

जो है महफ़िल में सबसे हसीं ऐ 'हया'
वो कहीं मेरी हिंदी ज़बां तो नहीं

यकजहतियों=एकता
समन= फूल

Tuesday, July 21, 2009

कैसी कैसी सरहदें



धर्म की कुछ ज़ात की कुछ हैसियत की सरहदें
आदमीयत की ज़मीं पर कैसी कैसी सरहदें

मुल्क को तो बाँट लें लेकिन ये सोचा है कभी
दिल को कैसे बाँट सकती हैं सियासी सरहदें

माँग भर कर उसने मेरी मांग ली आज़ादियाँ
अब क़फ़स है और मैं हूँ या सिन्दूरी सरहदें

मैं मोहब्बत की पुजारिन वो है नफरत का असीर
मेरी अपनी मुश्किलें हैं उसकी अपनी सरहदें

बस बहुत तौहीन करली आपने अब देखिये
खींचनी आती हैं मुझको भी अना की सरहदें

देख कर आँखों में उसकी छलछलाती चाहतें
सोचती हूँ तोड़ दूं शर्मो-'हया' की सरहदें

क़फ़स = कैद
अना = मान,घमंड
असीर = कैदी

Wednesday, July 15, 2009

मेरी शर्म है मेरा ज़ेवर



हमने वीराने को गुलज़ार बना रखा है
क्या बुरा है जो हकीक़त को छुपा रखा है

दौरे हाज़िर में कोई आज ज़मीं से पूछे
आज इंसान कहाँ तूने छुपा रखा है ?

वो तो खुदगर्जी है ,लालच है, हवस है जिसका
नाम इस दौर के इन्सां ने वफ़ा रखा है

मैं तो मुश्ताक़ हूँ आंधी में भी उड़ने के लिए
मैंने ये शौक़ अजब दिल को लगा रखा है

मेरी बेटी तू सितारों सी ही रौशन होगी
ये मेरी माँ ने वसीयत में लिखा रखा है

अपने हाथों की लकीरों में हिना की सूरत
सिर्फ इक नाम तुम्हारा ही सजा रखा है

मैं के औरत हूँ मेरी शर्म है मेरा ज़ेवर
बस तख्खल्लुस इसी बाईस तो 'हया' रखा है !


दौरे हाज़िर=आज का ज़माना
मुश्ताक़ =उत्सुक
तखल्लुस =उपनाम
बाईस =कारण

Sunday, July 12, 2009

पिंजरा ले उड़ूंगी



हमें अब जगमगाना आ गया है
चरागे़ दिल जलाना आ गया है

मेरी खामोशियां भी बोलती हैं
उन्हें भी गुनगुनाना आ गया है

मैं जब चाहूंगी पिंजरा ले उड़ूंगी
परों को आज़माना आ गया है

ये मेरी जुर्रते परवाज देखो
उफ़क़ के पार जाना आ गया है

क़यामत या बाला समझो के आफत
शबाब आखि़र था आना आ गया है

ग़ज़ल उनसे कहीं मंसूब होगी
लबों पर खुद तराना आ गया है

'हया' दुनिया से मिटती जा रही है
'हया' कैसा ज़माना आ गया है

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