Saturday, February 5, 2011




आख़िर मेरे अंगूठे का प्लास्टर उतर गया , दर्द ज़रूर बाक़ी है,ज़ख़्म भी भर चुका है मगर रह रह कर उठती कसक हादसों की याद ताज़ा कर जाती है
किसी ने कहा भी है ना; "मौत तो घर के अन्दर भी आ सकती है " तो बस वैसे ही मेरे साथ दो हादसे घर में ही , चलते फिरते हो गए - जैसे उन्हें तो होना ही था , जैसे कोई बिन बुलाया मेहमान ज़बरन घर में घुस आये ।
सोचती हूँ तो उलझ जाती हूँ कि ये टल भी तो सकते थे ? अगर मै ऐसा ना करती तो शायद ऐसा ना होता , वैसा ना करती तो शायद वैसा ना होता ।
इन्सान की फ़ितरत है जी पीछे मुड़ - मुड़ के देखना ,ख़ुद से उलझना लेकिन "होनी को कौन टाल सकता है '' तो बस ये "होनी" थी तो "होनी" ही थी - हड्डी टूटनी थी तो टूटी , चिन ज़ख़्मी होनी थी तो हुई ,बेशक लापरवाही मेरी भी थी , मै कम ज़िम्मेदार नहीं हूँ ? अब भला क्या ज़रूरत थी जल्दबाज़ी करने की,हाय तौबा मचाने की ; माना "वापी" कवि सम्मलेन में जाना था तो भी इतनी जल्द बाज़ी? आख़िर फिसल गयी ना? अंगूठे की हड्डी तो टूटी ही , चिन ज़ख़्मी हुई सो अलग तो बस कवि सम्मलेन तो गया तेल लेने ,अंगूठा दबाके बैठ गयी ।

वक़्त को बहुत अंगूठा दिखाते है ना हम ? भाग दौड़ कर कर के ? २४ घंटे में कभी -कभी अड़तालीस घंटे का काम करते हैं लेकिन जब वक़्त अंगूठा दिखाता है तो २४ मिनट का काम २४ घंटे में भी नहीं हो पाता और कभी - कभी तो २४ महीने भी लग सकते हैं ।जैसे कभी कभी ग़ज़ल का एक मिसरा तो हो जाता है , दूसरा हो ही नहीं पाता, होता भी है तो एक अरसे बाद

पहले तो यक़ीन ही नहीं हुआ कि fracture हुआ होगा लेकिन जब दर्द और सूजन ने अपना रंग दिखाना शुरू किया तो जाना पड़ा मजबूरन डॉक्टर के पास और लो चढ़ गया प्लास्टर - वैसे प्लास्टर भी बड़े advanced,fashionable हो गए हैं , फिरोज़ी color का प्लास्टर देखते ही बनता था - मेरे सैमसंग मोबाइल से बिलकुल मैच करता हुआ - कभी मेरे कपड़ों और purse से भी मैच कर जाता था तो अक्सर सब ये पूछते कि ये क्या है? प्रोग्राम में दूर से दर्शकों को वोह किसी दस्ताने का सा एहसास देता था , जब तक ख़ुद ना बताओ कि भाई मेरे ये प्लास्टर है ,लोग इसे फैशन का ही एक हिस्सा मान बैठे थे - ख़ैर , उस ख़ूबसूरत प्लास्टर के साथ कार्यक्रम तो ख़ूब किये,तक़रीबन १२-१३ - जैसे उपरवाला compensate करना चाहता हो - कहते हैं ना कि वोह इम्तहान लेता है तो हौसला मंदों को नंबर भी ख़ूब देता है -वैसे तो उसके करम से काम की कोई कमी नहीं लेकिन इस बार तो जैसे एक साथ तांता सा लग गया था - वक़्त कहाँ बीत गया पता ही ना चला । शूटिंग भी शॉल ओढ़कर करली ( इंसान चाहे तो मुश्किल घड़ी में कोई रास्ता तलाश ही लेता है )
वाक़ई इंसां दर्द को नज़र अंदाज़ करे , हालात से दोस्ती करले ,वक़्त को अपनाकर मेहनत को साथ ले ,हौसले की डगर पर चल काम में लग जाए तो हादसों को भुलाना तक़रीबन आसान हो सकता है फिर भी ख़ुदा से यही दुआ है क़ि वोह ना केवल सिर्फ़ मुझे बल्कि सबको महफूज़ रखे ठीक वैसे ही जैसे उसने मुझे अनगिनत हादसात झेलते हुए भी रखा हुआ है - यक़ीन जानिये, अगर मैंने सब का ज़िक्र करना शुरू कर दिया तो आप मुझे "राणा सांगा की बहिन" का ख़िताब दे देंगे और ये तो सिर्फ़ जिस्मानी हादसात की एक झलक मात्र थी ,औरत होने के नाते मानसिक ,रूहानी,दिली हादसात भी झेलने पड़ते हैं जिसे मेरी तमाम blogger सखियाँ , सह पाठिकाएं , लेखिकाएं ,बखूबी समझ सकती हैं । औरत की यही ख़ासियत है कि वो जितना ज़ख़्मी होती है उतना मज़बूत होती जाती है

कौनसा ऐसा हादसा होगा जो मैंने ना झेला होगा लेकिन मेरे मालिक का करम है कि उसने हर चोट के साथ एक मज़बूती का एहसास दिया।
कभी अपनी autobiography लिखी तो एक एक का ज़िक्र करती चलूंगी
कभी कभी तो सोचती हूँ "हादसे" उन्वान से एक blog ही खोल दूँ और उसमे पहली ग़ज़ल ये डालदूं :-


हादसों से मेरी वैसे तो है पहचान बहुत
फिर भी बेख़ौफ़ हूँ , ख़ुशबाश मेरी जान बहुत

इतना आसां नहीं माज़ी से बग़ावत करना
ज़लज़ले
उठते हैं , आजाते हैं तूफ़ान बहुत


उसकी
तजवीज़ के आँखें मेरी उसको देखें
ये
वो मुश्किल है जो उसके लिए आसा बहुत


मेरा शाईस्ता ज़हन मुझको ये समझाता है
दिल
की अवाज ना सुन , दिल तो है नादाँ बहुत


वक़्त
के साथ फ़ना होती हैं कितनी ख़ुशियाँ
और
मादूम हुए जाते हैं अरमान बहुत


ज़िन्दगी
तेरी मैं तफ़सीर करूँ भी कैसे?
पढ़ ही पायी हूँ कहाँ मै तेरे फरमान बहुत?

" हया " लिखनी है हस्सास ग़ज़ल जो तुमको
किसी
हीले से करो दिल को परेशान बहुत

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हस्सास:- sensitive
हीले:- bahane
मादूम:- धुन्दला पढ़ जाना
तजवीज़:- proposal
तफसीर:- व्याख्या




और हाँ, आप सब की दुआओं ने मुझे बहुत हौसला दिया , पुरसिशे हालात का बहुत - बहुत शुक्रिया


THANK YOU


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