Friday, July 23, 2010

बन्दर क्या जानें अदरक का स्वाद

"शुक्रिया" एक ऐसा लफ़्ज़ है जिसका कोई सानी नहीं, कोई बदल नहीं ; कोई तारीफ़ करे तो "शुक्रिया" ; दुआ दे तो "शुक्रिया" ; बुरा करे तो "शुक्रिया" और बद्दुआ दे तो भी "शुक्रिया";तोहफ़ा दे तो "शुक्रिया"; आपकी मदद करे - ना करे ;मुलाक़ात करे-ना करे ; फोन करे-ना करे तो भी "शुक्रिया" ; तो जनाब आप सब का ,

"शुक्रिया" "शुक्रिया" "शुक्रिया"



आप सोचेंगे किसलिए भाई?ओफ़्फोह, जब हम किसी ख़ास मौक़े पर किसी को बधाई देते हैं तो वो पलट कर शुक्रिया अदा करता है ना? तो, दास्ताने-मुख़्तसर ये है कि .....

१२ जुलाई को मेरा ब्लॉग एक साल का हो गया ; अब ज़ाहिर सी बात है ये जानने के बाद तो आप उसे जन्म-दिन की बधाई देंगे ही ना? तो बस

"शुक्रिया" - "शुक्रिया" - "शुक्रिया"

अरे अब तो इतनी ख़ुशी मुझे अपने जन्म-दिन पर भी नहीं होती जितनी आज हो रही है ; बचपन में जरूर होती थी क्योंकि तब रिटर्न गिफ्ट का चलन नहीं था ; अब तो इस उत्सव में भी गिव एंड टेक की रस्म शामिल हो गयी ; ये पाश्चात्य सभ्यता का अंधानुकरण करते-करते हम अपनी बेलौस बेग़रज़ मुहब्बतों को कहाँ छोड़ आये हैं?
अब ऐसे मासूम , पाक-साफ़, स्वार्थ हीन रिश्ते तो सिर्फ अदबी परिवारों में ही नज़र आते हैं और उन्हीं से तअल्लुक़ रखते हैं : आप और हम -

"हैं जिनके पास अपने तो वो अपनों से झगड़ते हैं
नहीं जिनका कोई अपना वो अपनों को तरसते हैं
मगर ऐसे भी हैं कुछ पाक और बेग़रज़ से रिश्ते
जिन्हें तुमसे समझते हैं जिन्हें हमसे समझते हैं "

हाँ तो मैं कह रही थी कि मुझे ख़ुशी हो रही है और इस ख़ुशी के पीछे कई वजूहात हैं जैसे :-

१. अब मैं महफ़ूज़ हूँ
२. अब मुझे कोई नहीं चुरा सकता
३. अब मैं खो भी नहीं सकती
४. अब मैं जाविदाँ रहूंगी
५. जहाँ जाइएगा हमें पाइयेगा
६. अब तन्हाई भी मातम नहीं मनाती है , और
७. घर बैठे बैठे ही गोया नशस्त सी हो जाती है

अब ग़ज़ल के सात अशआर की तरह ये सातों कारण आपको ऊपरी तौर पर तो समझ आ गए होंगे लेकिन जनाब इसके पीछे छुपी है एक बहुत ही " ग़मग़ीन दास्तान" जो तमाम सबूतों के साथ मैं आपके सामने पेश करने वाली हूँ. जितना वक़्त लगा है मुझे वो सदमा भुलाने में , उस से ज्यादा वक़्त लगेगा आपको वो रुदाद सुनाने में ...लेकिन इस से क़ब्ल मैं अपनी पहली पोस्ट के पहले कमेन्ट करने वाले से लेकर मेरी अब तक की आख्रिरी पोस्ट के आखरी कमेन्ट करने वाले की तहेदिल से शुक्रगुज़ार हूँ और उनकी भी जो :-

१. नियमित रूप से आते हैं
२. जो कभी कभी आते हैं
३. जो अब बिलकुल नहीं आते
४. जो मेल भेज कर ग़ायब हो जाते हैं , और
५. जो सोचते हैं कि वो नहीं आते तो हम भी नहीं जाते
फिर भी आप सभी ब्लॉगर मुझे बहुत बहुत हैं भाते

क्यूंकि मैं भी सबको जवाब नहीं दे पाती - किसी को शायद एक बार भी न दिया हो लेकिन ये सब मसरूफ़ियत, ग़फ़लत , लापरवाही, सुस्ती या भूल की वजह से हुआ होगा वर्ना मेरी हरचंद कोशिश रहती है कि मैं आप सबसे जुड़ी रहूँ क्यूंकि:

जिस जगह लोग हों घर तो वही घर होता है
वर्ना दिल तो किसी जंगल सा नगर होता है
सिर्फ मेहनत नहीं काफ़ी यहाँ शोहरत के लिए
अपने लोगों की दुआ का भी असर होता है

तो बस इस साल सबसे पहले येही काम होगा ; आप सबको कहाँ से ढूंढ - ढूंढ कर मिलूंगी- कुछ सवालात, आपत्तियों, शंकाओं...जिनका जवाब उधार रह गया था ; वो क़र्ज़ उतारूंगी और-और-और उन सबको आप सबकी तरफ से कड़ा जवाब भी दूँगी जो अक्सर पूछते हैं :-

१. अरे आपने ब्लॉग क्यूँ खोला ?
२. क्या ज़रुरत है, मंच है ना?
३. कैसे मेंटेन करती हैं ये सब?
४. वक्त मिल जाता है सबको पढने पढ़ाने का ?

तो भाई इन सबका एक ही जवाब है :-


"बन्दर क्या जानें अदरक का स्वाद"

सही है ना? अपनों के बीच रहने, उनसे मिलने- गुफ़्तगू करने, जुड़ने का अपना ही मज़ा है और अब तो हम सब एक परिवार हो गए हैं , आप सबके नाम और कलाम मेरे दिलो-दिमाग़ पर नक़्श हो गए हैं; आप सबके जज़्बात, रचनात्मक मेहनत, मुहब्बत, दुआएं, सुझाव मुझे अचंभित और हर्षित कर जाते हैं ;-

दीपक 'मशाल' सा प्यारा भाई, इस्मत ज़ैदी साहिबा सी आपा, प्रिया सी दोस्त, तुलसी भाई के बच्चों के प्यारे प्यारे मेल, शाहिद मिर्ज़ा साहब जैसे खैरख्वाह, सुभाष नीरव जैसे अदबी, उड़न तश्तरी जैसे मार्गदर्शक और स्मार्ट इंडियन जैसे स्मार्ट भाई,सुलभ भाई जैसे तकनिकी सलाहकार , रंजना, रचना, शमा, सदा,संगीता जैसी बहिने, आप सबके ब्लॉग गुरु पंकज सुबीर जी....उफ्फफ्फ्फ़...किस किसका नाम लूं - किसे छोडूँ - किसे?? और इस परिवार में मुझे शामिल करने का श्रेय जाता है मेरे भाई " नीरज गोस्वामी ' जी को, जो हाथ धो कर और लठ्ठ लेकर मेरे पीछे पड़ गए थे कि - ब्लॉग खोलो -ब्लॉग खोलो- ब्लॉग खोलो- और आखिर 12 जुलाई २००९ को ये नेक काम उनकी मदद से कर ही डाला; बस पहुँच गयी खोपोली तब से जो आने जाने और उनको परेशान करने का सिलसिला चालू है - मैं उनसे कहती हूँ कि "आपने शेरनी के मुंह खून लगा ही दिया है तो भुगतो" और वो भी हंस कर कहते हैं कि "सर ऊखली में दिया तो मूसली से क्या डरना?"

अरे हाँ वो रुदाद जो मैं पीछे छोड़ आई थी वो भी तो आपको सुनानी है- जिसने मुझे ये ब्लॉग खोलने पर मजबूर किया , लेकिन आज नहीं अगली पोस्ट में - क्रमशः ....
तब तक आप सबकी एक वर्षीय मुहब्बत के नाम एक ग़ज़ल :-

ये मुहब्बत तो मौला की सौग़ात है
वर्ना मै क्या हूँ क्या मेरी औक़ात है

गर है जन्नत ज़मीं पे तो बस है यहीं
आप हम है,ग़ज़ल है,हसीं रात है

मेरे आंगन जो बरसे फ़क़त आब है
तेरे आंगन जो बरसे वो बरसात है

(इसी क़ाफ़िए का एक और शेर)

मेरी आँखों में छाए घटा शर्म की
तेरी आँखों में रिमझिम है बरसात है

मैंने देखे है लाखो सुख़नवर मगर
आपकी बात बस आपकी बात है

हम अदीबो का मज़हब फ़क़त प्यार है
हम सभी की फ़क़त एक ही ज़ात है

तुम से मिलते हुए अब भी आये "हया"
ऐसा लगता है पहली मुलाक़ात है -


बेलौस -बिना किसी लालच के
आब-पानी
दास्ताने-मुख़्तसर -छोटी कहानी
सुख़नवर-अदब नवाज़
रूदाद-दुःख भरी कहानी

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