Thursday, May 13, 2010

वो कुत्ता पाल सकता है मगर माँ ?

मदर्स डे तो बीत गया, लेकिन सिर्फ तारीख़ के हिसाब से, क्या हर दिन मदर्स डे नहीं होता? हमारा अस्तित्व जिसकी वजह से है - उस माँ के बगैर एक दिन भी सुकून से गुज़रता है ? - क़दम-क़दम पर उस माँ की ज़रुरत महसूस होती है, जिसके क़दमों तले ज़न्नत होने का दावा, ख़ुद ख़ुदा ने किया है. उस अनाथ से पूछो जिसे माँ का आंचल और दूध नसीब न हुआ हो. मैं ये नहीं कहती कि बाप की ज़रुरत और अहमियत माँ से कम है - बिलकुल नहीं, लेकिन ये सच है कि एक बच्चा बाप के बगैर - सिर्फ माँ के साथ बेख़ौफ़ पुरसुकून, खुशहाल, बचपन गुज़ार सकता है लेकिन माँ के बग़ैर वो कितना उदास तन्हा और खुद को सहमा महसूस करता है - वही बता सकता है जो माँ विहीन रहा हो - उसे भगवान् ने सब कुछ दे कर भी जैसे कुछ न दिया हो - दुनिया की तमाम दौलत -रिश्ते-ऐशो-आराम-एक माँ की कमी को पूरा नहीं कर सकते - माँ ना होना शायद सबसे बड़ी बदकिस्मती हो लेकिन मेरी नज़र में सबसे बदक़िस्मत वो है जो जवानी की देहलीज़ पर क़दम रखते ही - गृहस्थ जीवन में प्रवेश करते ही - 'पति' और 'बाप' बनते ही अपनी माँ से अलग हो दुनिया का सबसे ज़ालिम बेटा बन जाता है.

आज बुजुर्ग माँ-बाप से अलग रहना या उन्हें अलग कर देना महानगरों में एक फैशन बन गया है और बाकि जगहों पर एक 'आदत' - जगह-जगह वृद्धाश्रम खोल दिए गए हैं ताकि बूढ़े माँ -बाप को वहां धकेल कर ये तथाकथिक हाई-फाई, उच्च-ख़ानदानी ऊंचे-ऊंचे ओहदों पर बैठे इंसान स्वछन्द, अय्याश जीवन व्यतीत कर सकें. वही माँ बाप जो हमें एक ख़ास मुक़ाम तक पहुंचाते हैं उन्हें हम उनके आखरी दिनों में एक तन्हा मुक़ाम पर छोड़ आते हैं - धिक्कार है ऐसी औलाद पर, बेटों पर - बहुओं पर.



एक नज़्म ऐसे बेटों पर लानत स्वरुप आप तक
पहुंचा
रही हूँ:-

उसे तन्हा, सिसकता छोड़ जब आया मेरा भाई
मैं बेटी हूँ, मैं अपनी माँ को अपने साथ ले आई

वो बूढ़ी हो गयी, तो अब उसे, इक बोझ लगती है
जवानी, अपने बच्चों के लिए, जिसने थी झुलसाई

है बस अपनी ही बीवी और बच्चों से उसे मतलब
उसी को भूल बैठा है, जो दुनिया में उसे लाई

वो कुत्ता पाल सकता है, मगर माँ बोझ लगती है
उसे कुत्ते ने क्या कुछ भी, वफ़ादारी ना सिखलाई

जो जैसा बीज बोता है, वो फल वैसा ही पाता है
बुढ़ापा तुझपे भी आएगा, क्यूँ भूला ये सच्चाई

तेरा बेटा जो देखेगा, वही तो वो भी सीखेगा
तू अपने वास्ते, हाथों से अपने, खोद ना खाई

जो वृद्धाश्रम में बेटा, छोड़ कर, तुझको चला आये
अगर ज़िंदा रही, पूछेगी तुझसे, तेरी माँ जाई

बता किसके लिए, तूने कमाई थी, यहाँ दौलत
मगर जो अस्ल दौलत फ़र्ज़ की थी, वो तो बिसराई

खुलेगा जब खुदा के बैंक में, खाता तेरा इक दिन
तेरे सर पर, बड़ा कर्ज़ा, चढ़ा होगा मेरे भाई

वो माँ, क़दमों तले जिसके ख़ुदा ने ख़ुद रखी जन्नत
ज़हन्नुम नाम ख़ुद अपने, उसे यूँ छोड़, लिखवाई

जो मन्नत मांगते थे बस हमें बेटा हो, बेटा हो
उन्हें बेटी की क़ीमत अब बुढ़ापे में समझ आई

मैं बेटी हूँ, मैं अपनी माँ को अपने साथ ले आई

ये नज़्म मैंने इन दिनों कई कार्यक्रमों में सुनाई और यकीन जानिये - हर जगह किसी ना किसी बुज़ुर्ग की आँख में दर्द का समंदर लहराता दिखा. उनकी आँखों का पानी मुझे ख़ुशी नहीं बल्कि और दहला गया कि ना जाने ये बुज़ुर्गान किस तकलीफ़ से गुज़र रहे होंगे. उफ़ ! उनके बच्चे ना जाने उनके साथ क्या सुलूक करते होंगे.

मेरे भाइयों अगर ज़रा भी इंसानियत और ख़ुदा का खौफ़ बाक़ी है तो अपने बूढ़े वाल्दैन को अकेला ना छोड़ने की कसम खाईये और वो माँ-बाप जो अभी जवान हैं -सिर्फ बेटों की तमन्ना मत कीजिये -बेटियों पर भी भरोसा कीजिये और वो ? जो जन्म से पहले ही बेटियों को मरवा डालते हैं -मेरे इस दावे पर यकीन कीजिए कि आज बेटों से ज़्यादा बेटियां माँ -बाप की देखभाल करती है और काम आती है.

जो अपने घरों में जानवर पाल सकते हैं, माँ -बाप को नहीं वो क्या किसी शैतान ,मुजरिम ,ज़ालिम ,कातिल ,या आतंकवादी से कम गुनहगार हैं ?

"वो कुत्ता पाल सकता है मगर माँ बोझ लगती है"

लानत है...लानत है....लानत है...

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