Sunday, December 12, 2010

मैं intelligent होगई हूँ




ख़ुदा गवाह ही कि जो कह रही हूँ सच कह रही हूँ :-
"देखा, मैं तेरी ख़ुशबू से intelligent होगई हूँ " ये सुनते ही मैं चौंक पड़ी , यक़ीन करना मुश्किल हो रहा था कि ये जुमला मेरी उस बुज़ुर्ग माँ की ज़बान से निकला था जो दस दिन पहले जब मेरे सुपुर्द की गयी थी(भाई ऑस्ट्रेलिया गया था),ना ठीक से चल पाती थी , ना समझ पाती थी ,जिनकी आँखों की रौशनी और याददाश्त उम्र कि वजह से कमज़ोर हो चली है और जिसने आते ही ये सवाल किया था कि तू पिंकी ही है ना?(my nickname) ,उसकी ज़बान से ये जुमला !
तक़रीबन दोपहर ४ बजे का वक़्त था , etv urdu पर mushaira आ रहा था , मुझे १४ नवम्बर को नेहरु रत्न अवार्ड मिलने वाला था , मैं वहां जाने के लिए तैयार हो रही थी , मम्मी को उस दिन सुब्ह तैयार नहीं कर पायी थी ,इन दिनों वो सारे फ़र्ज़ मुझे अदा करने पड़ रहे है जो बचपन में माँ हमारे लिए किया करती थी तो मैंने मम्मी से कहा कि चलो आपको ग़ुस्ल करवा दूं , फिर मुझे जाना है ; उधर mushaire में शेर पढ़ा जा रहा था "मोहब्बत नहीं है आसान मामू " माँ बड़े गौर से सुन रही थी , इधर मेरी गुहार , उधर अशआर , तो बस यूं लगा जैसे मेरी माँ में किसी शायर की रूह घुस आई हो , अचानक शुरू हो गयीं , "मुश्किल है अब इन्कार सरला( उनका नाम),होगई है तू ...... रुक गयीं, बोलीं "बता ना आगे क्या होगा? ",मैंने कहा " हो गयी है तू लाचार सरला " , तो ख़ुश हो गयीं "हाँ " फिर दूसरा मिसरा लगाना शुरू किया , "बेटी का है फरमान सरला" और यक़ीन जानिये कि क्या-क्या बोलती गयीं - मैं हैरान और परेशान और जब उन्होंने ये कहा " अब तो पड़ेगा ही नहाना , आगे नहीं आता है बनाना " तो मेरी ज़बान से निकला कि , वाह ! अरे मम्मी आप तो शायरी कर रहीं हैं और फिर .............. उनकी ज़बान से ये जुमला निकला " देखा? तेरी खुशबू से मैं intelligent होगयी हूँ"और ये कह कर उन्होंने मेरा गाल चूम लिया .

उनकी ज़बान से निकली हुई ये बात मुझे छू गयी । विरासत में हमें उनसे बहुत कुछ मिला है । राजस्थान के cheif minister की steno रह चुकी हैं लेकिन बुढ़ापा इंसान को जिस मरहले पे ले आता है , वहाँ हमें ये सोचना चाहिए कि हमारे parents सिर्फ़ बुज़ुर्ग हुए हैं ,मरीज़ नहीं जबकि हम उनके बुढ़ापे को एक लाइलाज रोग समझकर घर के एक कोने में 'रख' देते हैं ; ख़ुशनुमा माहौल के बगैर तने तन्हा पड़े पड़े ये माँ बाप वक़्त से पहले ही चल देते हैं ।
जिस तरह मशीनों को तेल की, गाड़ियों को पैट्रोल की , पेड़-पौधों को खाद की ज़रूरत होती है , उसी तरह बुज़ुर्गों को रौनक़ की, साथ की , देखभाल और प्यार की ज़रूरत होती है ।

मेरी माँ की ये तस्वीर चीख़-चीख़ कर कह रही है कि children day सिर्फ़ parents द्वारा बच्चों को प्यार बाँटने का दिन नहीं बल्कि बच्चों द्वारा भी parents की केयर करने का दिन होना चाहिए
हम कितने भी बड़े हो जायें उनके लिए बच्चे ही रहेंगे और जब वो बच्चे की तरह हो जायें तब हमें भी उनके साथ बच्चों जैसा प्यार बाँटना चाहिए .............बाल दिवस पर ये matra - ratna award एक बेटी के लिए नेहरु ratna award से किसी भी तरह कम ना था .

यही सोचते - सोचते जब मैं function में पहुंची और जब मेरे हाथ में mike थमाया गया तो यक- ब -यक मैं ये घटना सुना बैठी , सब गौर से सुन रहे थे , महसूस कर रहे थे .........

उस दिन मुझे इस बात का और यक़ीन हो गया कि सिर्फ़ संगीत की ताक़त ही किसी रोग का इलाज नहीं करती बल्कि शब्द की शक्ति ,अल्फाज़ की ताक़त , अदब का असर और शायरी की ख़ुशबू भी दवाई सा काम करती है .......... वो ख़ुशबू मेरी नहीं,उर्दू की थी , ज़बान की थी,शायरी की थी जिसने मेरी माँ को चंद लम्हों के लिए "intelligent" बना दिया था ।
आज उनको ये घटना याद भी नहीं है ,वो भूल चुकी हैं कि मैंने ऐसा भी कुछ कहा था लेकिन मैंने सोच लिया है कि मैं अब उनके आस पास शायरी को ज़िंदा रखूंगी और सिर्फ़ 'पिंकी' बन कर नहीं , उर्दू और शायरी बनकर रहूंगी ;


मेरी तो ज़ात-पात, धर्म, दीन शायरी
ये घर ,मकां ,जहां ,फ़लक ,ज़मीन शायरी

देखा जो तुमने प्यार से तो यूं लगा मूझे
जैसे कि हो गयी हूँ मैं हसीन शायरी

ख्वाहिश की तितलियाँ बड़ी कमसिन है, शोख़ हें
इनके तुफ़ैल होगयी रंगीन शायरी

सरज़द हुई हैं ऐसी भी दिल पर हक़ीक़तें
रिश्तों
का लिख गयी नया आईन शायरी

ग़ैरत की लाश हाथ में लेकर ग़ज़ल कहूं
तेरी
कर सकूंगी यूं तौहीन शायरी

लैला -- शायरी हूँ मेरा क़ैस है सुख़न
ये
जुर्म है तो दे सज़ा , ना छीन शायरी

इक लम्स है ये शायरी मेरे लिए ' हया '
उनकी
नज़र में लाम , मीम , सीन, शायरी

- x - x - x -



ग़ुस्ल करना = नहाना
तने तन्हा =बिल्कुल अकेला
तुफैल = वजह
आईन= संविधान
सरज़द = घटित
क़ैस = मजनू का नाम
लाम मीम सीन = means l ,m, s( in urdu)

Sunday, October 24, 2010

सोचती रही



कभी-कभी अनमनी सी हो उठती हूँ मैं ,कुछ करने को जी ही नहीं चाहता ,गुमसुम सी,दिल-दिमाग़ जैसे कहीं खो जाते हैं,कोई वजह भी तो नहीं होती ,न कोई ग़म , न कोई शिकायत,न कोई सदमा,न दिल टूटने जैसी कोई बात , बस अचानक ही ऐसी कैफ़ियत तारी हो जाती है ।
ये सिलसिला आज से नहीं , सालों से चला आ रहा है, उस वक़्त से जब मै शायद जज़्बातों का ,कुछ बातों का ठीक से मतलब भी नहीं समझ पाती थी । आप यक़ीन जानिए ,जब मै exam देती थी,तब भी अक्सर ऐसा हो जाता था ,जयपुर दूरदर्शन पर news reading करती थी तब भी - बस दिमाग़ ,हाथ ,आँखें अपना काम करती थीं ,"मैं " कहीं और होती थी , news editor mr.Singhvi कहा करते थे - "इसके पास कोई खड़े रहो वरना ये पता नहीं कहाँ चली जाएगी,न्यूज़ की ऐसी-तैसी हो जाएगी। क्या आपके साथ भी कभी ऐसा होता है ?

अब देखिये ना - २ october गया ,commonwealth games आये-गए ,नवरात्र गुज़र गयी ,दशहरा बीत गया लेकिन कुछ पोस्ट करने को दिल ही नहीं हुआ । पता नहीं क्यूँ ? कभी-कभी दिल का चैनल चाहता है कि तसव्वुर के स्क्रीन पर कोई पिक्चर चलाऊं तो दिमाग़ का रिमोट काम नहीं करता , दिमाग़ कुछ ख़यालात download करना चाहता है तो मूड का केबल disconnect हो जाता है - हाथ यादों के रिमोट को पकड़कर कई चैनल चलाना चाहते हैं ; यादों के,बचपन के, रिश्तों के,काम के ,महफ़िलों के,तन्हाईयों के,तकलीफों के ,मेहनतों के लेकिन जोश का ,प्रेरणा का ,दिलचस्पी का fuse उड़ जाता है , दिल सब से मुलाक़ात करना चाहता है तो रूह तन्हाई की मांग करने लगती है ,नज़र कई मौज़ुआत पे पड़ना चाहती है तो पलकें आँख पर पर्दा डाल देती हैं ; ज़िन्दगी सच्चाईयों से इश्क़ करना चाहती है तो सोचो - फिक्र ख़ुदकुशी कर लेते हैं और फिर मैं ही ग़ज़ल और शेरों का वरक़ के बीच रस्ते में ही क़त्ल कर देती हूँ --------- ये honor killing-सा मामला क्या है ? कल रात बस मै यही सोचती रही - सोचती रही - सोचती रही .......


मौज़ूअ रात भर मैं कई सोचती रही
मै थक गयी ,समझ न सकी ,सोचती रही

बेचैनियाँ पहुँच ही गयीं थीं उरूज पर
मै करवटें बदलती रही ,सोचती रही

बादल फ़लक पे आ तो रहा था नज़र मुझे
बरसेगा कब तलक ? मै यही सोचती रही

मै चाह कर भी दे न सकी बद्दुआ उसे
फिर किसकी हाय उसको लगी ,सोचती रही

यूं भी हुआ के छू सकी मुद्दतों क़लम
लेकिन ग़ज़ल मैं फिर भी नई सोचती रही

गर मिलके बिछड़ना ही लिखा था नसीब में
फिर किस लिए मै उससे मिली ,सोचती रही

तुम ख़ुश रहो ! ये बोल के वो तो चला गया
मै वहीं खड़ी की खड़ी सोचती रही


क्या लाज रख सकेंगे "हया" की वो मुस्तक़िल
उसके क़रीब जब भी गयी ,सोचती रही


x-x-x

Wednesday, September 22, 2010

हिन्दू हैं,मुल्क हिंद है,हिंदी परायी है !


मैं देर करती नहीं ,देर हो जाती है,हालाँकि इस बार उचित कारणों से हुई है,हिंदी पखवाड़ा,गणेश महोत्सव,ईद मिलन के कार्यक्रमों में वक़्त कहाँ गुज़र गया,पता ही नहीं चला। जैसे हम साल भर हिंदी के लिए हिंदी दिवस का इंतज़ार करते हैं ,वैसे ही मैं भी हिंदी की पोस्ट के लिए एक ख़ाली दिवस का इंतज़ार कर रही थी जो आज मिला है ।हालांकि ज़हन में कशमकश चालू थी की आपको हमको भी तो मिलना हैं- मेरी ग़ज़ल "ज़रूरी है" पर किसीने एक कमेन्ट किया था उसे ही शेर के तौर पर आप तक पहुंचा रही हूँ-

चलो माना बहुत मसरूफ है ये ज़िन्दगी लेकिन
मुहब्बत करने वालों से मुहब्बत भी ज़रूरी है

और आप सब तो (ब्लॉग जगत)net पर मेरी पहली मुहब्बत हैं और इन्सान अपनी पहली मुहब्बत को कभी नहीं भूलता,हालांकि आप सब इधर-उधर रक़ीबों के साथ भटकते-भटकते टकरा जाते हैं - कभी facebook पर,कभी ट्विटर पर तो कभी और कहीं मगर फिर लौट कर यहाँ आ जाते हैं,शायद इसी लिए मशहूर शायरा (पाकिस्तान) परवीन शाकिर साहिबा ने कहा होगा-

वो कहीं भी गया लौटा तो मेरे पास आया
बस यही बात है अच्छी मेरे हरजाई की

तो जनाब यहाँ मिलने का मज़ा ही अलग है क्यूंकि ब्लॉग-जगत तो भाषा-प्रेमियों का सब से रोमांटिक स्थल (लव पॉइंट)है ; यहाँ हिंदी को propose किया जाता है,उसके साथ डेटिंग की जाती है,प्यार भरी गुफ़्तगू की जाती है,कहीं कहीं मैंने तक़रार के नज़ारे भी देखे हैं,कभी शिकायतें होती हैं,गिले-शिकवे होते हैं,रिश्ते टूटते हैं फिर जुड़ जाते है और फिर सब घुल मिलकर वापस गले मिल जाते हैं जैसे हिन्दुस्तानी अपनी महबूबा हिंदी भाषा को साल भर फरामोश करके फिर एक दिन मिल जाते हैं तो ब्रेक ऑफ़ और patch up की इस अदबी दोस्ती-दुश्मनी के मंच पर मेरी मुबारकबाद क़ुबूल करते हुए ग़ज़ल के मतले पर गौर फरमाएं :-

यूँ तो समन्दरों से मेरी आशनाई है
मेरी प्यास में भी अजब पारसाई है


राहत की बात ये है के बेदाग़ हाथ हैं
उरयानियत की हमने हिना कब लगायी है


छोटी को निगल जाएँ बड़ी मछलियां मैं
ज़िंदा हूँ इनके दरमियाँ,क्या कम ख़ुदाई है ?


जा मैंने इस्तफादा किया अश्क से तो क्या
तुझको नमी क्या आँख की मैंने दिखाई है ?



इससे बड़ा मज़ाक़ तो होगा भी क्या भला
हिन्दू हैं,मुल्क हिंद है,हिंदी परायी है !



हमको तमाशबीन जो कहते हैं,हैफ़ है
और वो ? दुकान जिसने सदन में लगायी है


ये सोच कर के बात बिगड़ जाये ना कहीं
मैंने लबे-"हया" पे खमोशी सजाई है

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प = पर
आशनाई= जान पहचान
पारसाई = सब्र ,संयम
इस्तफादा= फायदा उठाना
उर्यानियत =नग्नता

खमोशी= ख़ामोशी

Saturday, September 11, 2010

वाह ! बप्पा से गले ईद मिली हो जैसे





त्यौहारों का मौसम है,आसमां में आतिशबाज़ी,बाज़ारों में रौनक़,रिश्तों में गर्माहट,घरों से उठती पकवानों की महक,मुहब्बत से गले मिलते लोग,गलियों में शोर मचाते बच्चे,घरों में ईद और गणपति की तैयारियों गलियों और सड़कों पर सजावट,जगह जगह क़ौमी एकता का पैग़ाम देते पोस्टर्स,रह-रह के उठती ढोल,नगाड़ों की आवाज़,वाह !वारी जाऊं अपने हिंदुस्तान के इस हुस्न पर.

इस बात तो ये ख़ुशी दुगनी हो गयी है ईद - गणपति एक साथ ! रमज़ान की शुरुआत में रक्षा बंधन,बीच में जन्माष्टमी और अब गणपति सब साथ-साथ तो हम अलग कहाँ हैं ?अलग क्यूँ हो जाते हैं ?
कब और कैसे हो जाते हैं ? जब हमारा मुल्क एक, हमारी खुशियाँ एक, हमारे त्यौहार और और देवगण एक साथ हो जाते हैं तो हम क्यूँ अलग हो जाते हैं ? क्या हम हमेशा एक साथ ऐसे ही हंसी-ख़ुशी नहीं रह सकते ? ज़रा सोचिये ये एक साथ आने वाले त्यौहार हमें क्या कहना चाह रहे हैं ?

बहरहाल आप सब को ईद और गणपति की बहुत बहुत शुभकामनाओं और मुबारकबाद के साथ पेश है एक नज़्म


फिर मेरे दिल में मुहब्बत ने सदायें दी हैं
ईद आई है तो ख़ुशियों की दुआएं की हैं

ज़िन्दगी आज रफ़ाक़त में रंगी हो जैसे
आज बप्पा से गले ईद मिली हो जैसे

ऐसे दिन नाम अदावत का कोई लेता है
राम भी आज मोहम्मद से गले मिलता है

मुख्तलिफ़ क़ौमों के त्यौहार जुदा हैं लेकिन
एक पैग़ाम है,अवतार जुदा हैं लेकिन

मेरी होली के तेरी ईद या दीवाली हो
पर्व कहते हैं के हर धर्म की रखवाली हो

कुंदज़ेहनो का तो बस एक ही मज़हब - नफ़रत
इन रिवायात का बस एक ही मतलब -नफ़रत

नफरतें दिल में जो फट जाती हैं इक बम बन कर
ईद आ जाती है उन ज़ख्मों का मरहम बनकर

आज इस यौमे - मुहब्बत की क़सम है हमको
अपने रोज़ों की,इबादत की क़सम है हमको

हम ना आयेंगे फरेबों में सियासतदां के
धर्म के नाम पे जो मुल्क को,दिल को बांटे

है मसर्रत का यह दिन फिर भी उदासी सी है
आज चुप -चुप है फ़लक और ज़मीं रोई है

चाँद भी रात को मायूस लगा था मुझको
ये मेरा वहम सही उसने कहा था मुझको

नफरतें चीर के जिस रोज़ उजाला होगा
कोई बेबस,न ज़मीं पे कोई भूका होगा

जब ग़रीबी नए मलबूस पहन पायेगी
झोपड़ी से भी सिवैय्यों की महक आयेगी

दीद हर चेहरे पे जिस रोज़ ख़ुशी की होगी
ईद के हाथों में यक्जेहती की ईदी होगी

ये तगय्युर मुझे जिस रोज़ नज़र आयेगा
ईद का चाँद " हया " और निखर जायेगा ।

रफ़ाकत = दोस्ती
अदावत = दुश्मनी
मुख्तलिफ़ = अलग अलग
कुंद ज़ह्नों = संकीर्ण विचार
रिवायत = रस्में
यौमे मोहब्बत = मोहब्बत का दिन
मसर्रत = खुशी
सियासत दां = नेता
फ़लक = आसमान
मलबूस = कपड़े
तगय्युर = परिवर्तन

विशेष: नांदेड से मेरे एक शुभ चिन्तक जनाब मजिदुल्लाह साहब ने मेरे अशआर को ईद की ग्रीटिंग का अक्स दिया है जिसे मैं आप सबसे शेयर करना चाहती हूँ.आप से निवेदन है के मेरी साईट
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Saturday, August 21, 2010

माणुस से माणुस को जोड़ो



भोपाल एअरपोर्ट पर बैठी हूँ,कल B H E L द्वारा स्वतंत्रता-दिवस समारोह के उपलक्ष्य में all India Mushaira आयोजित किया गया था,उससे एक दिन पहले,धार(इंदौर) में भी सर्व धर्म सद्भाव समिति द्वारा अखिल भारतीय कवि सम्मलेन आयोजित किया गया था ; उर्दू मंच हो या हिंदी मंच,मुस्लिम हो या हिन्दू,सब ज़ोर शोर से देशभक्ति से ओतप्रोत रचनाओ को अपना समर्थन दे रहे थे,शहीदों को भीगी आँखों से याद कर रहे थे,समाज के लिए नयी नयी योजनओं को प्रारंभ करने की घोषणा कर रहे थे ; " ये है हिंदुस्तान ",देशभक्ति ,यकजहती ,धार्मिक सौहार्द्र ,मिलजुल कर ख़ुशियाँ बाँटने का प्रयास ; ये वो हिंदुस्तान था जिसके लिए शहीदों ने अपनी जान की बाज़ी लगा दी थी लेकिन हमें दिखाया जाता है वो हिंदुस्तान जो संसद में गाली गलौज करता है ,घोटाले करता है ,बुतों पर जूतों की मालाएं चढ़ाता है,दंगा करता है,धर्म को लेकर झगड़ता रहता है ;जो ग़रीब है,भ्रष्ट है,ज़ात-पात को लेकर अनेक कुंठाओं से ग्रस्त है,जिसे आप हम लोग रोज़ मीडिया की नज़र से देखते है और सियासत की ज़बां से सुनते हैं और नेताओं की बुद्धि से समझते हैं ; मैंने भी यही किया इसलिए आपको happy Independence day नहीं कहा लेकिन जब पिछले दिनों में हिंदुस्तान को अपनी नज़र से देखा,श्रोताओं की ज़बान से सुना और अदब के दिमाग़ से समझा तो दिल ग्लानि से भर गया ,तमाम मंज़र ही बदल गया ,यक़ीन जानिए जब हम इन तमाम बुराइयों को नज़रअंदाज़ कर मोहब्बत की नज़र से मुल्क को देखेंगे तो सब अच्छा लगेगा ; तो बस दिल चाहा कि आपको शुभकामनाएं पहुंचा ही दूं , हम क्यूँ अपनी मोहब्बतों ,दुआओं में कंजूसी और कटौती करें ? तो लीजिये देर से ही सही इस ग़ज़ल के साथ आपको स्वतंत्रता दिवस की मुबारकबाद पेश करना चाहती हूँ ;

कुर्सी का नेता क्या बनना,दिल पर राज करो तो जाने
किया शहीदों ने जो कल था,वो ही आज करो तो जाने


ज़ात-पात भाषा का झगड़ा,ये तो कोई काम नहीं है
माणुस से माणुस को जोड़ो,ऐसे काज करो तो जाने


भेद भाव का तिलक लगाकर,माथे की सज्जा करते हो
यकजहती का ख़ून बचाकर,ख़ुद की साज करो तो जाने


कितनो की रोज़ी छीनोगे ,लाशों पर रोटी सेकोगे
हाय ग़रीबो के बच्चों को,ना मोहताज करो तो जाने


अंग्रेज़ों की नीति छोड़ो ,हिन्दुस्तां को यूँ ना तोड़ो
"हिंदी हिंदी भाई भाई" को सरताज करो तो जाने


" भारतवासी भारत छोड़ो", वाह जी ये कैसा नारा है?
नफ़रत की दुनिया का ख़ुद को ,मत यमराज करो तो जाने


केवल अपने घर की रक्षा, ये सैनिक का धर्म नहीं है
हर माँ बहिना की इज्ज़त कर,ख़ुद पर नाज करो तो जाने


यही दुआ है हिन्दुस्तां की सबसे ऊँची कुर्सी पाओ
लेकिन पहले हिन्दुस्तां का ख़ुद को ताज करो तो जाने



(नाज़ की जगह नाज लिखा है स्थानीय भाषा में)
(१६ अगस्त को लिखी थी एअरपोर्ट पे पर किन्ही कारणों से आज पोस्ट कर पा रही हूँ )


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Friday, July 23, 2010

बन्दर क्या जानें अदरक का स्वाद

"शुक्रिया" एक ऐसा लफ़्ज़ है जिसका कोई सानी नहीं, कोई बदल नहीं ; कोई तारीफ़ करे तो "शुक्रिया" ; दुआ दे तो "शुक्रिया" ; बुरा करे तो "शुक्रिया" और बद्दुआ दे तो भी "शुक्रिया";तोहफ़ा दे तो "शुक्रिया"; आपकी मदद करे - ना करे ;मुलाक़ात करे-ना करे ; फोन करे-ना करे तो भी "शुक्रिया" ; तो जनाब आप सब का ,

"शुक्रिया" "शुक्रिया" "शुक्रिया"



आप सोचेंगे किसलिए भाई?ओफ़्फोह, जब हम किसी ख़ास मौक़े पर किसी को बधाई देते हैं तो वो पलट कर शुक्रिया अदा करता है ना? तो, दास्ताने-मुख़्तसर ये है कि .....

१२ जुलाई को मेरा ब्लॉग एक साल का हो गया ; अब ज़ाहिर सी बात है ये जानने के बाद तो आप उसे जन्म-दिन की बधाई देंगे ही ना? तो बस

"शुक्रिया" - "शुक्रिया" - "शुक्रिया"

अरे अब तो इतनी ख़ुशी मुझे अपने जन्म-दिन पर भी नहीं होती जितनी आज हो रही है ; बचपन में जरूर होती थी क्योंकि तब रिटर्न गिफ्ट का चलन नहीं था ; अब तो इस उत्सव में भी गिव एंड टेक की रस्म शामिल हो गयी ; ये पाश्चात्य सभ्यता का अंधानुकरण करते-करते हम अपनी बेलौस बेग़रज़ मुहब्बतों को कहाँ छोड़ आये हैं?
अब ऐसे मासूम , पाक-साफ़, स्वार्थ हीन रिश्ते तो सिर्फ अदबी परिवारों में ही नज़र आते हैं और उन्हीं से तअल्लुक़ रखते हैं : आप और हम -

"हैं जिनके पास अपने तो वो अपनों से झगड़ते हैं
नहीं जिनका कोई अपना वो अपनों को तरसते हैं
मगर ऐसे भी हैं कुछ पाक और बेग़रज़ से रिश्ते
जिन्हें तुमसे समझते हैं जिन्हें हमसे समझते हैं "

हाँ तो मैं कह रही थी कि मुझे ख़ुशी हो रही है और इस ख़ुशी के पीछे कई वजूहात हैं जैसे :-

१. अब मैं महफ़ूज़ हूँ
२. अब मुझे कोई नहीं चुरा सकता
३. अब मैं खो भी नहीं सकती
४. अब मैं जाविदाँ रहूंगी
५. जहाँ जाइएगा हमें पाइयेगा
६. अब तन्हाई भी मातम नहीं मनाती है , और
७. घर बैठे बैठे ही गोया नशस्त सी हो जाती है

अब ग़ज़ल के सात अशआर की तरह ये सातों कारण आपको ऊपरी तौर पर तो समझ आ गए होंगे लेकिन जनाब इसके पीछे छुपी है एक बहुत ही " ग़मग़ीन दास्तान" जो तमाम सबूतों के साथ मैं आपके सामने पेश करने वाली हूँ. जितना वक़्त लगा है मुझे वो सदमा भुलाने में , उस से ज्यादा वक़्त लगेगा आपको वो रुदाद सुनाने में ...लेकिन इस से क़ब्ल मैं अपनी पहली पोस्ट के पहले कमेन्ट करने वाले से लेकर मेरी अब तक की आख्रिरी पोस्ट के आखरी कमेन्ट करने वाले की तहेदिल से शुक्रगुज़ार हूँ और उनकी भी जो :-

१. नियमित रूप से आते हैं
२. जो कभी कभी आते हैं
३. जो अब बिलकुल नहीं आते
४. जो मेल भेज कर ग़ायब हो जाते हैं , और
५. जो सोचते हैं कि वो नहीं आते तो हम भी नहीं जाते
फिर भी आप सभी ब्लॉगर मुझे बहुत बहुत हैं भाते

क्यूंकि मैं भी सबको जवाब नहीं दे पाती - किसी को शायद एक बार भी न दिया हो लेकिन ये सब मसरूफ़ियत, ग़फ़लत , लापरवाही, सुस्ती या भूल की वजह से हुआ होगा वर्ना मेरी हरचंद कोशिश रहती है कि मैं आप सबसे जुड़ी रहूँ क्यूंकि:

जिस जगह लोग हों घर तो वही घर होता है
वर्ना दिल तो किसी जंगल सा नगर होता है
सिर्फ मेहनत नहीं काफ़ी यहाँ शोहरत के लिए
अपने लोगों की दुआ का भी असर होता है

तो बस इस साल सबसे पहले येही काम होगा ; आप सबको कहाँ से ढूंढ - ढूंढ कर मिलूंगी- कुछ सवालात, आपत्तियों, शंकाओं...जिनका जवाब उधार रह गया था ; वो क़र्ज़ उतारूंगी और-और-और उन सबको आप सबकी तरफ से कड़ा जवाब भी दूँगी जो अक्सर पूछते हैं :-

१. अरे आपने ब्लॉग क्यूँ खोला ?
२. क्या ज़रुरत है, मंच है ना?
३. कैसे मेंटेन करती हैं ये सब?
४. वक्त मिल जाता है सबको पढने पढ़ाने का ?

तो भाई इन सबका एक ही जवाब है :-


"बन्दर क्या जानें अदरक का स्वाद"

सही है ना? अपनों के बीच रहने, उनसे मिलने- गुफ़्तगू करने, जुड़ने का अपना ही मज़ा है और अब तो हम सब एक परिवार हो गए हैं , आप सबके नाम और कलाम मेरे दिलो-दिमाग़ पर नक़्श हो गए हैं; आप सबके जज़्बात, रचनात्मक मेहनत, मुहब्बत, दुआएं, सुझाव मुझे अचंभित और हर्षित कर जाते हैं ;-

दीपक 'मशाल' सा प्यारा भाई, इस्मत ज़ैदी साहिबा सी आपा, प्रिया सी दोस्त, तुलसी भाई के बच्चों के प्यारे प्यारे मेल, शाहिद मिर्ज़ा साहब जैसे खैरख्वाह, सुभाष नीरव जैसे अदबी, उड़न तश्तरी जैसे मार्गदर्शक और स्मार्ट इंडियन जैसे स्मार्ट भाई,सुलभ भाई जैसे तकनिकी सलाहकार , रंजना, रचना, शमा, सदा,संगीता जैसी बहिने, आप सबके ब्लॉग गुरु पंकज सुबीर जी....उफ्फफ्फ्फ़...किस किसका नाम लूं - किसे छोडूँ - किसे?? और इस परिवार में मुझे शामिल करने का श्रेय जाता है मेरे भाई " नीरज गोस्वामी ' जी को, जो हाथ धो कर और लठ्ठ लेकर मेरे पीछे पड़ गए थे कि - ब्लॉग खोलो -ब्लॉग खोलो- ब्लॉग खोलो- और आखिर 12 जुलाई २००९ को ये नेक काम उनकी मदद से कर ही डाला; बस पहुँच गयी खोपोली तब से जो आने जाने और उनको परेशान करने का सिलसिला चालू है - मैं उनसे कहती हूँ कि "आपने शेरनी के मुंह खून लगा ही दिया है तो भुगतो" और वो भी हंस कर कहते हैं कि "सर ऊखली में दिया तो मूसली से क्या डरना?"

अरे हाँ वो रुदाद जो मैं पीछे छोड़ आई थी वो भी तो आपको सुनानी है- जिसने मुझे ये ब्लॉग खोलने पर मजबूर किया , लेकिन आज नहीं अगली पोस्ट में - क्रमशः ....
तब तक आप सबकी एक वर्षीय मुहब्बत के नाम एक ग़ज़ल :-

ये मुहब्बत तो मौला की सौग़ात है
वर्ना मै क्या हूँ क्या मेरी औक़ात है

गर है जन्नत ज़मीं पे तो बस है यहीं
आप हम है,ग़ज़ल है,हसीं रात है

मेरे आंगन जो बरसे फ़क़त आब है
तेरे आंगन जो बरसे वो बरसात है

(इसी क़ाफ़िए का एक और शेर)

मेरी आँखों में छाए घटा शर्म की
तेरी आँखों में रिमझिम है बरसात है

मैंने देखे है लाखो सुख़नवर मगर
आपकी बात बस आपकी बात है

हम अदीबो का मज़हब फ़क़त प्यार है
हम सभी की फ़क़त एक ही ज़ात है

तुम से मिलते हुए अब भी आये "हया"
ऐसा लगता है पहली मुलाक़ात है -


बेलौस -बिना किसी लालच के
आब-पानी
दास्ताने-मुख़्तसर -छोटी कहानी
सुख़नवर-अदब नवाज़
रूदाद-दुःख भरी कहानी

Tuesday, June 29, 2010

मेरे पड़ौसी - पेड़, परिंदे और पुलिस

जी हाँ, मैं पेड़ों की, परिंदों की और पुलिस की पड़ौसन हूँ, दूसरे अल्फाज़ में ये सब मेरे पड़ौसी हैं. कैसे? वो ऐसे कि ओशिवरा पुलिस स्टेशन के ठीक पीछे मेरा घर है और मेरे घर के ठीक सामने अनगिनत हरे-भरे पेड़ों का झुरमुट है. ख़ाली पड़ी ज़मीन पर क़ब्ज़ा जमाये ये पेड़ पिछले दस सालों में मेरी आँखों के सामने जवान हुए हैं. पौधों से पेड़ बन कर इन्होने मेरे चौथे माले पर बने फ्लैट को भी अपने क़द के सामने बौना बना दिया है. उन पर महकते पीले-पीले फूलों को देख कर मेरी सुब्ह होती है और उन पर चहकते नन्हें नन्हें परिंदों को देख कर मेरी शाम होती है और रात गुज़रती है उनके रहस्यमय सायों और उनसे छन कर आती पुलिस स्टेशन की झिलमिलाती रौशनी से. रात को खिड़की में बैठ कर ये गुमान होता है मानो साऊथ अफ्रीका के किसी मिनी जंगल में बैठी हूँ. इतना सुकून, शांति और वो भी मुंबई जैसे महानगर में?

इन सब की पड़ौसन बन कर बहुत ख़ुश थी मैं -बहुत ख़ुश . ये शायराना माहौल छोड़ कर कहीं और शिफ्ट होने का दिल ही नहीं चाहता था गो कि मकान बदलना कुछ दुश्वारियों की वजह से मेरे लिए ज़रूरी भी था लेकिन नहीं जा सकी.

लेकिन ये क्या ? अचानक पांच जून को मेरी नींद टूटती है मशीनों के कानफोड़ू शोर से; उत्सुकता वश जब खिड़की के बाहर झांकती हूँ तो कलेजा मुंह को आ जाता है. मशीनों से इन पेड़ों को काटा जा रहा था और जलाया जा रहा था.

चरमराकर गिरते हुए पेड़ों को देख कर अचानक यूँ महसूस हुआ मानो किसी ने ज़मीन का ज़बरन गर्भपात करवा दिया हो-क्या इनमें भी कन्या भ्रूण-हत्या का चलन है या हिन्दू के हाथ से बोये पौधे ने किसी मुस्लिम के हाथ से बोये पेड़ को नफ़रत की बलि चढ़ा दिया है? या इनमें भी मराठी-हिंदी भाषाओँ को लेकर झगडा हुआ है? और फिर धू-धू जलते हुए उन पेड़ों के शवों को देख कर ऐसा लग रहा था जैसे किसी नव यौवना को दहेज की आग में जला दिया गया हो. खुद से ही सवाल करने लगी कि ये इंसान तो नहीं हैं फिर ज़ात-पात-मज़हब-फिरक़ापरस्ती दंगों-बुराइयों से भी दूर हैं तो फिर आख़िर किस बिना पर इनका इतनी बेरहमी से क़त्ल किया जा रहा है और वो भी आज? चौंक पड़ती हूँ जब अख़बार पर नज़र पड़ती है कि आज "विश्व पर्यावरण दिवस" है. टी.वी. पर इस विषय पर आयोजित विश्व सम्मलेन की बड़ी-बड़ी ख़बरें प्रसारित की जा रहीं हैं ! वाह क्या विडंबना है कि ठीक आज ही के दिन मेरे पड़ौसी पेड़ जो कि प्रकृति और पर्यावरण के सुधारक है ( जैसे इंसानी समाज में समाज सुधारक होते हैं ) ना जाने किस परियोजना की भेंट चढ़ रहे हैं ! वाह !

परिंदे अपना आशियाना उजड़ते देख फड़फड़ा रहे हैं-देखी नहीं जा रही उनकी बैचैनी-मालूम है कि परिंदे हैं-कहीं और घरौंदा बना ही लेंगे लेकिन मैं? काश परिंदे की तरह अपनी मन पसंद लोकेशन और शाख़ तलाश पाती. तो क्या करूँ ? पुलिस में शिकायत करूँ कि मेरे पड़ौसियों के साथ नाइन्साफ़ी हो रही है, ज़ुल्म हो रहा है , पर पुलिस भी क्या करेगी ! बेचारी सरकार और उसकी नीतियों के सामने कभी-कभी बहुत बेबस हो जाती है. और जब पुलिस ही कुछ नहीं कर पाती तो " मैं" आम जनता और ये बेबस मूक पेड़-परिंदे और चरिंदे क्या कर पाएंगे?

अरे जनाब ये तो सरकारी नीतियों और प्रकृति की जंग है ! और ये जो इंसानियत का पेड़ कटता जा रहा है ; मुहब्बत के परिंदे छटपटा रहे हैं-रिश्तों का पर्यावरण ही प्रदूषित होता जा रहा है-उसको रोकने का कोई उपाय है हमारे पास? ना हमारी नीयत में हरियाली, न जज़्बातों की मिटटी में नमी, न फ़र्ज़ के पौधों की सिंचाई ; फ़क़त स्वार्थ और अपनी महत्वाकांक्षाओं की फ़स्ल की बुवाई और उस पर ख़ामोश हमारी रूह की पुलिस-ठीक वैसे ही जैसे मेरी पड़ौसन ओशिवरा पुलिस तो ज़मीन के पेड़ और यकजहती के पेड़ कटते ही रहेंगे और प्रदूषित होता रहेगा धरती और मानवता का पर्यावरण और जारी रहेगा धरती पर क़ुदरत का क़हर (भूकंप, तूफ़ान.सूखा) और इंसानियत पर बुराइयों का क़हर (भ्रष्टाचार , दंगे-दहशतगर्दी) .

उधर मशीनों का शोर, इधर परिंदों की चीख़ें और मेरे भीतर मचा है सवालात का अजीब कोलाहल;

क्यूँ बुलडोज़र मंगाए जा रहे हैं
शजर क्यूँ फिर गिराए जा रहे हैं

इन्हें कटता हुआ यूँ देख कर के
परिंदे तिलमिलाए जा रहे हैं

मशीनों के मुक़ाबिल पेड़ क्या हैं
कि जब कोह तक कटाए जा रहे हैं

मेरी मुंबई है जैसी भी, भली है
ये क्यूँ शंघई बनाये जा रहे हैं

जिधर देखो इमारत का समंदर
कि बादल बौख़लाये जा रहे हैं

ये पीले गुल जो कल मुस्का रहे थे
अजब मातम मनाये जा रहे हैं

कलेजा मुंह को मेरे आ रहा है
कली के शव जलाए जा रहे हैं

हवा की बद्दुआ, मौसम के नाले
ज़मी को तमतमाए जा रहे हैं

परिंदे, पेड़, हरियाली 'हया ' सब
तेरे हमसाये 'हाय' जा रहे हैं

कोह : पहाड़, नाले : आहें, हमसाये : पडौसी


Wednesday, June 2, 2010

मैं एक तन्हा जज़ीरा पा लूं


मेरी जबीं पे वो ज़ख्म देगा तो खून से तर ग़ज़ल कहूँगी
अगर लगाएगा सुर्ख़ बिंदी मैं सज संवर कर ग़ज़ल कहूँगी

खमोशियों के समन्दरों का ज़रा कनारा तो ढूँढने दो
मैं एक तन्हा जज़ीरा पा लूं वहीँ पहुंचकर ग़ज़ल कहूँगी

ए मीरे -मजलिस तेरी सदारत क़ुबूल करके कहा है सबने
मगर पसे -अंजुमन है कोई मैं आज जिस पर ग़ज़ल कहूँगी

तबस्सुमों के निक़ाब में तुम छुपा तो लेने दो मुझ को चेहरा
उदासियों को छुपा लिया अब कहो मुक़र्रर ग़ज़ल कहूँगी

उसे मकानों की आरज़ू थी मेरी तमन्ना थी एक घर की
तेरी ज़मीं पे, तेरे मकां पर मैं आज बेघर ग़ज़ल कहूँगी

क़फ़स में अत्तार कब तलक तू रखेगा ख़ुशबू छुपा के मेरी
चटख गयीं जो ये शीशियाँ फिर बिखर बिखर कर ग़ज़ल कहूँगी

तेरी रिफाक़त, तेरी सदाक़त का है तअस्सुर भी हर ग़ज़ल में
अगर तुझे नज्र हों ये ग़ज़लें ज़हे-मुक़द्दर ग़ज़ल कहूँगी

अगरचे महफ़िल की शान भी हूँ वक़ार अपना रखूंगी क़ायम
उसे यकीं है के मैं 'हया' हूँ ,समझ-सँभल कर ग़ज़ल कहूँगी


जबीं = माथा
जज़ीरा = द्वीप
मीरे-मजलिस = मजलिस के मुखिया
सदारत = अध्यक्षता
पसे - अंजुमन = महफिल के पीछे
अत्तार = इत्र बेचने वाला
रिफाक़त = दोस्ती
सदाक़त = सच्चाई
तअस्सुर = असर
वक़ार = इज़्ज़त

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