Sunday, January 2, 2011

हो जाये साले-नौ में मुहब्बत पे गुफ़्तगू?

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मेरा हाल तो मत पूछिए ; ज़ख़्मी हूँ , नए साल का आग़ाज़ हादसे के साथ हुआ लेकिन अभी उसका ज़िक्र करके आप सबको दुखी नहीं करना चाहती क्यूंकि अपनों की तकलीफ़ जानके अपनों को दुःख होता है इसलिए वो रुदाद अगली पोस्ट में, बस इतना जान लीजिए कि कभी - कभी वक़्त और हादसे भी ज़िन्दगी के साथ सियासी खेल खेल जाते है और मेरे साथ ये खेल बचपन से खेला जा रहा है पर छोडिये , आज बस इतना ही कहूँगी ;

छोडो, बहुत हुई है, सियासत पे गुफ़्तगू
होजाए साले-नौ में मुहब्बत पे गुफ़्तगू

बर्बाद करके जाएगा ये वक़्त देखिये
करते रहे जो हम यूँही नफ़रत पे गुफ़्तगू

जब भी करो हो बात तो "सूरत" पे करो हो
बेहतर यही है आज हो "सीरत" पे गुफ़्तगू

मुंह पे कहे है 'वाह' पीछे कहे है 'हुंह'
और मै करूं जो तेरी जहालत पे गुफ़्तगू?

आदर्श लोग बैठ शहीदों की क़ब्र पे
चुपचाप कर रहे हैं जी राहत पे गुफ़्तगू

उर्दू ज़ुबान और ये क़ुदरत के फ़रिश्ते
छुप छुप के करें शब में मेरी छत पे गुफ़्तगू

गर ख़ैर चाहते हैं तो घर लौट जाइए
नेता जी कर रहे हैं हिफ़ाज़त पे गुफ़्तगू

गर ये अमीर--शहर है, अफ़्सोस है हमें !
ग़ुरबत से कर रहे हैं जो इस्मत पे गुफ़्तगू

मंज़िल की जब तलाश में घर से निकल पड़े
हम फिर नहीं करते हैं मुसाफ़त पे गुफ़्तगू

इस शहर में तो ख़ुद से भी जब जब हो मुलाक़ात
होती है सिर्फ़ दौलत--शोहरत पे गुफ़्तगू

उस आदमी का ज़हन तो मफ्लूज है "हया"
करता है बेहयाई से औरत पे गुफ़्तगू

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ग़ुरबत :- ग़रीबी
मुसाफ़त:- सफ़र
मफ्लूज:- लक़वा मारा हुआ




नया साल साल बहुत बहुत मुबारक हो

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