
चरमराकर गिरते हुए पेड़ों को देख कर अचानक यूँ महसूस हुआ मानो किसी ने ज़मीन का ज़बरन गर्भपात करवा दिया हो-क्या इनमें भी कन्या भ्रूण-हत्या का चलन है या हिन्दू के हाथ से बोये पौधे ने किसी मुस्लिम के हाथ से बोये पेड़ को नफ़रत की बलि चढ़ा दिया है? या इनमें भी मराठी-हिंदी भाषाओँ को लेकर झगडा हुआ है? और फिर धू-धू जलते हुए उन पेड़ों के शवों को देख कर ऐसा लग रहा था जैसे किसी नव यौवना को दहेज की आग में जला दिया गया हो. खुद से ही सवाल करने लगी कि ये इंसान तो नहीं हैं फिर ज़ात-पात-मज़हब-फिरक़ापरस्ती दंगों-बुराइयों से भी दूर हैं तो फिर आख़िर किस बिना पर इनका इतनी बेरहमी से क़त्ल किया जा रहा है और वो भी आज? चौंक पड़ती हूँ जब अख़बार पर नज़र पड़ती है कि आज "विश्व पर्यावरण दिवस" है. टी.वी. पर इस विषय पर आयोजित विश्व सम्मलेन की बड़ी-बड़ी ख़बरें प्रसारित की जा रहीं हैं ! वाह क्या विडंबना है कि ठीक आज ही के दिन मेरे पड़ौसी पेड़ जो कि प्रकृति और पर्यावरण के सुधारक है ( जैसे इंसानी समाज में समाज सुधारक होते हैं ) ना जाने किस परियोजना की भेंट चढ़ रहे हैं ! वाह !

परिंदे अपना आशियाना उजड़ते देख फड़फड़ा रहे हैं-देखी नहीं जा रही उनकी बैचैनी-मालूम है कि परिंदे हैं-कहीं और घरौंदा बना ही लेंगे लेकिन मैं? काश परिंदे की तरह अपनी मन पसंद लोकेशन और शाख़ तलाश पाती. तो क्या करूँ ? पुलिस में शिकायत करूँ कि मेरे पड़ौसियों के साथ नाइन्साफ़ी हो रही है, ज़ुल्म हो रहा है , पर पुलिस भी क्या करेगी ! बेचारी सरकार और उसकी नीतियों के सामने कभी-कभी बहुत बेबस हो जाती है. और जब पुलिस ही कुछ नहीं कर पाती तो " मैं" आम जनता और ये बेबस मूक पेड़-परिंदे और चरिंदे क्या कर पाएंगे?
अरे जनाब ये तो सरकारी नीतियों और प्रकृति की जंग है ! और ये जो इंसानियत का पेड़ कटता जा रहा है ; मुहब्बत के परिंदे छटपटा रहे हैं-रिश्तों का पर्यावरण ही प्रदूषित होता जा रहा है-उसको रोकने का कोई उपाय है हमारे पास? ना हमारी नीयत में हरियाली, न जज़्बातों की मिटटी में नमी, न फ़र्ज़ के पौधों की सिंचाई ; फ़क़त स्वार्थ और अपनी महत्वाकांक्षाओं की फ़स्ल की बुवाई और उस पर ख़ामोश हमारी रूह की पुलिस-ठीक वैसे ही जैसे मेरी पड़ौसन ओशिवरा पुलिस तो ज़मीन के पेड़ और यकजहती के पेड़ कटते ही रहेंगे और प्रदूषित होता रहेगा धरती और मानवता का पर्यावरण और जारी रहेगा धरती पर क़ुदरत का क़हर (भूकंप, तूफ़ान.सूखा) और इंसानियत पर बुराइयों का क़हर (भ्रष्टाचार , दंगे-दहशतगर्दी) .

उधर मशीनों का शोर, इधर परिंदों की चीख़ें और मेरे भीतर मचा है सवालात का अजीब कोलाहल;
क्यूँ बुलडोज़र मंगाए जा रहे हैं
शजर क्यूँ फिर गिराए जा रहे हैं
इन्हें कटता हुआ यूँ देख कर के
परिंदे तिलमिलाए जा रहे हैं
मशीनों के मुक़ाबिल पेड़ क्या हैं
कि जब कोह तक कटाए जा रहे हैं
मेरी मुंबई है जैसी भी, भली है
ये क्यूँ शंघई बनाये जा रहे हैं
जिधर देखो इमारत का समंदर
कि बादल बौख़लाये जा रहे हैं
ये पीले गुल जो कल मुस्का रहे थे
अजब मातम मनाये जा रहे हैं
कलेजा मुंह को मेरे आ रहा है
कली के शव जलाए जा रहे हैं
हवा की बद्दुआ, मौसम के नाले
ज़मी को तमतमाए जा रहे हैं
परिंदे, पेड़, हरियाली 'हया ' सब
तेरे हमसाये 'हाय' जा रहे हैं
कोह : पहाड़, नाले : आहें, हमसाये : पडौसी
