Tuesday, June 29, 2010

मेरे पड़ौसी - पेड़, परिंदे और पुलिस

जी हाँ, मैं पेड़ों की, परिंदों की और पुलिस की पड़ौसन हूँ, दूसरे अल्फाज़ में ये सब मेरे पड़ौसी हैं. कैसे? वो ऐसे कि ओशिवरा पुलिस स्टेशन के ठीक पीछे मेरा घर है और मेरे घर के ठीक सामने अनगिनत हरे-भरे पेड़ों का झुरमुट है. ख़ाली पड़ी ज़मीन पर क़ब्ज़ा जमाये ये पेड़ पिछले दस सालों में मेरी आँखों के सामने जवान हुए हैं. पौधों से पेड़ बन कर इन्होने मेरे चौथे माले पर बने फ्लैट को भी अपने क़द के सामने बौना बना दिया है. उन पर महकते पीले-पीले फूलों को देख कर मेरी सुब्ह होती है और उन पर चहकते नन्हें नन्हें परिंदों को देख कर मेरी शाम होती है और रात गुज़रती है उनके रहस्यमय सायों और उनसे छन कर आती पुलिस स्टेशन की झिलमिलाती रौशनी से. रात को खिड़की में बैठ कर ये गुमान होता है मानो साऊथ अफ्रीका के किसी मिनी जंगल में बैठी हूँ. इतना सुकून, शांति और वो भी मुंबई जैसे महानगर में?

इन सब की पड़ौसन बन कर बहुत ख़ुश थी मैं -बहुत ख़ुश . ये शायराना माहौल छोड़ कर कहीं और शिफ्ट होने का दिल ही नहीं चाहता था गो कि मकान बदलना कुछ दुश्वारियों की वजह से मेरे लिए ज़रूरी भी था लेकिन नहीं जा सकी.

लेकिन ये क्या ? अचानक पांच जून को मेरी नींद टूटती है मशीनों के कानफोड़ू शोर से; उत्सुकता वश जब खिड़की के बाहर झांकती हूँ तो कलेजा मुंह को आ जाता है. मशीनों से इन पेड़ों को काटा जा रहा था और जलाया जा रहा था.

चरमराकर गिरते हुए पेड़ों को देख कर अचानक यूँ महसूस हुआ मानो किसी ने ज़मीन का ज़बरन गर्भपात करवा दिया हो-क्या इनमें भी कन्या भ्रूण-हत्या का चलन है या हिन्दू के हाथ से बोये पौधे ने किसी मुस्लिम के हाथ से बोये पेड़ को नफ़रत की बलि चढ़ा दिया है? या इनमें भी मराठी-हिंदी भाषाओँ को लेकर झगडा हुआ है? और फिर धू-धू जलते हुए उन पेड़ों के शवों को देख कर ऐसा लग रहा था जैसे किसी नव यौवना को दहेज की आग में जला दिया गया हो. खुद से ही सवाल करने लगी कि ये इंसान तो नहीं हैं फिर ज़ात-पात-मज़हब-फिरक़ापरस्ती दंगों-बुराइयों से भी दूर हैं तो फिर आख़िर किस बिना पर इनका इतनी बेरहमी से क़त्ल किया जा रहा है और वो भी आज? चौंक पड़ती हूँ जब अख़बार पर नज़र पड़ती है कि आज "विश्व पर्यावरण दिवस" है. टी.वी. पर इस विषय पर आयोजित विश्व सम्मलेन की बड़ी-बड़ी ख़बरें प्रसारित की जा रहीं हैं ! वाह क्या विडंबना है कि ठीक आज ही के दिन मेरे पड़ौसी पेड़ जो कि प्रकृति और पर्यावरण के सुधारक है ( जैसे इंसानी समाज में समाज सुधारक होते हैं ) ना जाने किस परियोजना की भेंट चढ़ रहे हैं ! वाह !

परिंदे अपना आशियाना उजड़ते देख फड़फड़ा रहे हैं-देखी नहीं जा रही उनकी बैचैनी-मालूम है कि परिंदे हैं-कहीं और घरौंदा बना ही लेंगे लेकिन मैं? काश परिंदे की तरह अपनी मन पसंद लोकेशन और शाख़ तलाश पाती. तो क्या करूँ ? पुलिस में शिकायत करूँ कि मेरे पड़ौसियों के साथ नाइन्साफ़ी हो रही है, ज़ुल्म हो रहा है , पर पुलिस भी क्या करेगी ! बेचारी सरकार और उसकी नीतियों के सामने कभी-कभी बहुत बेबस हो जाती है. और जब पुलिस ही कुछ नहीं कर पाती तो " मैं" आम जनता और ये बेबस मूक पेड़-परिंदे और चरिंदे क्या कर पाएंगे?

अरे जनाब ये तो सरकारी नीतियों और प्रकृति की जंग है ! और ये जो इंसानियत का पेड़ कटता जा रहा है ; मुहब्बत के परिंदे छटपटा रहे हैं-रिश्तों का पर्यावरण ही प्रदूषित होता जा रहा है-उसको रोकने का कोई उपाय है हमारे पास? ना हमारी नीयत में हरियाली, न जज़्बातों की मिटटी में नमी, न फ़र्ज़ के पौधों की सिंचाई ; फ़क़त स्वार्थ और अपनी महत्वाकांक्षाओं की फ़स्ल की बुवाई और उस पर ख़ामोश हमारी रूह की पुलिस-ठीक वैसे ही जैसे मेरी पड़ौसन ओशिवरा पुलिस तो ज़मीन के पेड़ और यकजहती के पेड़ कटते ही रहेंगे और प्रदूषित होता रहेगा धरती और मानवता का पर्यावरण और जारी रहेगा धरती पर क़ुदरत का क़हर (भूकंप, तूफ़ान.सूखा) और इंसानियत पर बुराइयों का क़हर (भ्रष्टाचार , दंगे-दहशतगर्दी) .

उधर मशीनों का शोर, इधर परिंदों की चीख़ें और मेरे भीतर मचा है सवालात का अजीब कोलाहल;

क्यूँ बुलडोज़र मंगाए जा रहे हैं
शजर क्यूँ फिर गिराए जा रहे हैं

इन्हें कटता हुआ यूँ देख कर के
परिंदे तिलमिलाए जा रहे हैं

मशीनों के मुक़ाबिल पेड़ क्या हैं
कि जब कोह तक कटाए जा रहे हैं

मेरी मुंबई है जैसी भी, भली है
ये क्यूँ शंघई बनाये जा रहे हैं

जिधर देखो इमारत का समंदर
कि बादल बौख़लाये जा रहे हैं

ये पीले गुल जो कल मुस्का रहे थे
अजब मातम मनाये जा रहे हैं

कलेजा मुंह को मेरे आ रहा है
कली के शव जलाए जा रहे हैं

हवा की बद्दुआ, मौसम के नाले
ज़मी को तमतमाए जा रहे हैं

परिंदे, पेड़, हरियाली 'हया ' सब
तेरे हमसाये 'हाय' जा रहे हैं

कोह : पहाड़, नाले : आहें, हमसाये : पडौसी


39 comments:

  1. सुन्दर लेखन व सुन्दर चित्र।

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  2. Ab wahaan unche,unche flats banenge...ya malls banenge...yahi to pragati kahlati(!) hai!kaisi vidambana hai...padhke bahut takleef hui.

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  3. सीमेंट के जंगल के लिए ज़मीन खली करवाई होगी , मुंबई से ज्यादा खराब हालत दिल्ली की है कॉमन वेल्थ खेलो के लिए कितने जंगल साफ़ कर दिए ऊपर से तुर्रा ये की मीडिया भी आँख बंद किये बैठी है

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  4. मेरी मुंबई है जैसी भी, भली है
    ये क्यूँ शंघई बनाये जा रहे हैं

    दुखद स्थिति, मार्मिक रचना.

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  5. कलेजा मुंह को मेरे आ रहा है
    कली के शव जलाए जा रहे हैं

    हवा की बद्दुआ, मौसम के नाले
    ज़मी को तमतमाए जा रहे हैं

    आप की तकलीफ़ आप के कलाम में महसूस की जा सकती है,

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  6. लता 'हया'जी
    एक सच्चा फ़नकार कितना संवेदनशील होता है ,
    यह आपकी इस ग़ज़ल से साबित हो रहा है ।
    प्रकृति और पर्यावरण के प्रति जागरुकता के साथ
    आपकी संवेदनाएं सहज ही प्रभावित करने वाली हैं ।

    कलेजा मुंह को मेरे आ रहा है
    कली के शव जलाए जा रहे हैं


    हृदयहीन ही नहीं पसीजेगा …

    परिंदे, पेड़, हरियाली 'हया' सब
    तेरे हमसाये 'हाय' जा रहे हैं


    लखदाद है आपकी भावनाओं को नमन है आपके अंदर के इंसान को !

    अच्छी रचना है

    घणी घणी बधाई !

    - राजेन्द्र स्वर्णकार
    शस्वरं

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  7. बेहद संवेदनशील प्रस्तुति...!!

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  8. कलेजा मुंह को मेरे आ रहा है
    कली के शव जलाए जा रहे हैं


    -जिस तरह हरे भरे जंगल कांक्रिट के जंगलों में तबदील हो रहे हैं..भविष्य के लिए अच्छे आसार नहीं. संवेदनाओं से उपजी यह रचना अपनी बात कहने में सफल रही..बस, दरकार है कि लोग समझें और चेतें.

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  9. शीर्षक ने ही दिल जीत लिया दी, उसके बाद लेख, रंगीन चित्र, ग़ज़ल सब एक से बढ़कर एक... आज की पोस्ट कह सकते हैं इसे...

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  10. अत्यंत संवेदनशील रचना पढकर एक शे’र याद आ गया।

    तुम तैश में आकर जो इन्हें काट रहे हो,
    जब सर पे धूप होगी शज़र याद आएंगे। --

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  11. इन्हें कटता हुआ यूँ देख कर के
    परिंदे तिलमिलाए जा रहे हैं

    जिधर देखो इमारत का समंदर
    कि बादल बौख़लाये जा रहे हैं

    इन दो शेरों की खास तौर पर तारीफ़ के साथ...
    बस इतना ही अर्ज़ कर पा रहा हूं कि....
    लता जी....
    झकझोर दिया आपके नस्र और नज़्म के लेखन ने.

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  12. विचलित करने वाले तथ्यों को समेटे, मनमोहक तस्वीरों से सजी संवेदनशील पोस्ट के लिए आभार

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  13. संवेदनशील रचना.....गज़ल के साथ भूमिका भी मन को आद्र कर गयी....

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  14. हम कुछ नहीं कह सकते आज, ये कौन से युग में जी रहे हैं हम.
    "ना हमारी नीयत में हरियाली, न जज़्बातों की मिटटी में नमी,............"

    आपने आधुनिकता और पर्यावरण के बीच बढती खाई को एक बेमिसाल ग़ज़ल से चित्रित किया है. आज मानवता और मोहब्बत के परिंदे को चाहने वाला समाज प्रगति की अंधी दौर में खोचुका है.

    बहुत बहुत शुक्रिया अपने अहसासों को समस्त जनहित में प्रस्तुत करने के लिए.

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  15. लताजी, बिगड़ते पर्यावरण के लिए आपकी चिंता जायज़ है. हम सब को इस और विशेष ध्यान देने की जरूरत है, आने वाली नस्लें वर्ना हमें कभी माफ़ नहीं करेंगी...बेहतरीन ग़ज़ल कही है आपने एक एक शेर सोचने को मजबूर करता है और उन्हें पढ़ कर आपके लिए दिल से दुआ निकलती है...वाह...
    मेरा एक शेर भी चलते चलते पढ़ लें :
    नहीं जब छांव मिलती है कहीं भी राह में मुझको
    सफर में अहमियत मैं तब शजर की जान जाता हूं

    नीरज

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  16. आपकी यह पोस्ट दिल को छू गई....

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  17. एक एक बात लाजवाब!!!!! संवदनाओं से भरपूर, अच्छी लगी ये पोस्ट और उसकी भूमिका.

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  18. क्या कहूँ...मन बोझिल हो गया...
    कभी कभी लगता है चीख कर पूछूं ...यह दुनिया क्या ईश्वर ने सिर्फ मनुष्यों के लिए बनाई है....पशु पक्षी ,पेड़ पौधे,आसमान जमीन सब इंसान के मुट्ठी में जिसे चाहे जगह दे जिसे चाहे न दे..जिसे चाहे जीवित रहने दे ,जिसे चाहे मार दे...क्यों....
    पर किस्से यह पूछूं और कौन जवाब देगा ?????

    इंसान अपने को सर्वेसर्वा मान कर दरिन्दगी पर उतरा हुआ है,पर जब प्रकृति अपना बदला लेने लगेगी तो इंसान क्या करेगा ???????

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  19. बेहद संवेदनशील आलेख और रचना ... पढ़ कर ऐसा लगा बुलडोज़र दिलों से गुजर गया हो... आधुनिकता और विनाश का का करीबी रिश्ता उजागर करता आपकी पोस्ट और रचना अपने लक्ष्य पर तीर सी लगती हैं

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  20. jitni tareef karun kam hai.bahot khoobsurat rachna.

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  21. बढ़िया पोस्ट और सुन्दर रचना!
    --
    अब तक तो ई-टीवी(उर्दू) के मुशायरों में ही सुनते थे आपको !
    --
    लेकिन अब तो आपका ब्लॉग खोल कर जब मन करता है
    आपको सुन लेते हैं!

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  22. बहुत सुंदर और संवेदनशील.

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  23. samvedansheel lekhan dil ko choo gaya.........

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  24. खोने का गम....बिछड़ने की तल्खी...शब्दों की जादूगरी....दिल की बात...सहज अंदाज में....वाह क्या बात है....

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  25. जिधर देखो इमारत का समंदर
    कि बादल बौख़लाये जा रहे हैं ....


    बहुत खूब!

    ताज़ा माहौल पर ...व्यंग्य करती गज़ल ....संवेदनशील भी है ....



    शुभकामनाएं..

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  26. किसी का बिखरा है आशिया, कही कोई मकां बन रहा है
    अजीब खेल तो है मगर, सरेराह चल रहा है ..

    परिंदों को प्यार कोई क्यों न करे ? लेकिन आपकी संवेदनशीलता ने झकझोर दिया ....हमारी इतनी सी इल्तिजा है कि हम लोग सरकारी कामो में तो दखल नहीं दे सकते ना ही उनके लिए नए घर तलाश सकते हैं ......ये हुनर तो उन्हें खूब आता है......लेकिन कम से कम उनकी प्यास तो मिटा सकते हैं .....प्लीज़ चिड़ियों को प्यासा ना रखे......किसी खुली ठंडी जगह में उनके लिए किसी बर्तन में पानी अवश्य रखे.....लता जी के ब्लॉग पर आने वाले हर ब्लॉगर से मेरी विनती है

    सप्रेम
    प्रिया

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  27. ये हरी बस्तियां महफूज बनाए रखना..
    इस अमानत पे कड़े पहरे बिठाए रखना..

    अगले मौसम में परींदे जरूर लौटेंगे..
    सब्ज़ पेड़ों को किसी तौर बचाए रखना....

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  28. जिधर देखो इमारत का समंदर
    कि बादल बौख़लाये जा रहे हैं
    हवा की बद्दुआ, मौसम के नाले
    ज़मी को तमतमाए जा रहे हैं

    इन दो शेरों की बदौलत ग़ज़ल की अज़्मत-ओ-वक़ार में
    इज़ाफ़ा हुआ है ,,,,, यक़ीनन
    हर शेर अपने आप में मुकम्मल है...... मुबारकबाद

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  29. hello aunty...
    "या हिन्दू के हाथ से बोये पौधे ने किसी मुस्लिम के हाथ से बोये पेड़ को नफ़रत की बलि चढ़ा दिया है?"
    hamesha aisa hi kyon kaha jata hai?... ... iske bina bhi aapka lekh bahut achchha lagta... aur agar baat kahni hi hai to ek hi samay par nyay ke saath har paksh ki baat kahi jaye...mai aapki kalam ki prashansak hoon.. par aapki shaayari mai bhi mujhe ye rang achchha nahi lagta... aap umra mai mujhse badi hain isliye gustaakhi ke liye maafi chahungi... aap chahen to is comment ko approve na kariyega... par is baat par gaur zaroor kariyega...


    regards---
    ANSHUJA CHARVI PANDEY.

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  30. बहुत ही सुन्‍दरता के साथ प्रस्‍तुत किया है आपने, हर शब्‍द एक गहरी संवेदना के साथ अपनी बात कहता हुआ, बधाई ।

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  31. aapki kavitaa ne man moh liyaa..........sach vakta rahate sudharnaa chahiye

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  32. आपका नाम "अदा" हया होना चाहिए, अदाकारी और शायरी का एक अनूठा संगम।
    बहुत अच्छा कहती हैं आप !

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  33. प्रकृति,पेड़-पौधों और पंछियों को तबाह करने की साज़िश तो आज हर तरफ़ दिखाई देती हैं। एक संवेदनशील फ़नकार ही इतनी घनीभूत संवेदना के साथ अपने आलेख और अपनी ग़जल में ऐसी बात लिख सकता है जो पढ़ने वाले के भीतर भी हलचल मचा दे। सचमुच, आपने जो दृश्य खींचा है, वह भीतर तक मुझे बेचैन कर गया है। आपके भीतर के इस सच्चे,संवेदनशील कलाकार को मैं नमन करता हूँ।

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  34. जिधर देखो इमारत का समंदर
    कि बादल बौख़लाये जा रहे हैं


    बहुत सुन्दर पंक्तिया ....

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  35. बहुत सुन्दर पंक्तिया ....

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