आज बुजुर्ग माँ-बाप से अलग रहना या उन्हें अलग कर देना महानगरों में एक फैशन बन गया है और बाकि जगहों पर एक 'आदत' - जगह-जगह वृद्धाश्रम खोल दिए गए हैं ताकि बूढ़े माँ -बाप को वहां धकेल कर ये तथाकथिक हाई-फाई, उच्च-ख़ानदानी ऊंचे-ऊंचे ओहदों पर बैठे इंसान स्वछन्द, अय्याश जीवन व्यतीत कर सकें. वही माँ बाप जो हमें एक ख़ास मुक़ाम तक पहुंचाते हैं उन्हें हम उनके आखरी दिनों में एक तन्हा मुक़ाम पर छोड़ आते हैं - धिक्कार है ऐसी औलाद पर, बेटों पर - बहुओं पर.
एक नज़्म ऐसे बेटों पर लानत स्वरुप आप तक
पहुंचा
रही हूँ:-
उसे तन्हा, सिसकता छोड़ जब आया मेरा भाई
मैं बेटी हूँ, मैं अपनी माँ को अपने साथ ले आई
वो बूढ़ी हो गयी, तो अब उसे, इक बोझ लगती है
जवानी, अपने बच्चों के लिए, जिसने थी झुलसाई
है बस अपनी ही बीवी और बच्चों से उसे मतलब
उसी को भूल बैठा है, जो दुनिया में उसे लाई
वो कुत्ता पाल सकता है, मगर माँ बोझ लगती है
उसे कुत्ते ने क्या कुछ भी, वफ़ादारी ना सिखलाई
जो जैसा बीज बोता है, वो फल वैसा ही पाता है
बुढ़ापा तुझपे भी आएगा, क्यूँ भूला ये सच्चाई
तेरा बेटा जो देखेगा, वही तो वो भी सीखेगा
तू अपने वास्ते, हाथों से अपने, खोद ना खाई
जो वृद्धाश्रम में बेटा, छोड़ कर, तुझको चला आये
अगर ज़िंदा रही, पूछेगी तुझसे, तेरी माँ जाई
बता किसके लिए, तूने कमाई थी, यहाँ दौलत
मगर जो अस्ल दौलत फ़र्ज़ की थी, वो तो बिसराई
खुलेगा जब खुदा के बैंक में, खाता तेरा इक दिन
तेरे सर पर, बड़ा कर्ज़ा, चढ़ा होगा मेरे भाई
वो माँ, क़दमों तले जिसके ख़ुदा ने ख़ुद रखी जन्नत
ज़हन्नुम नाम ख़ुद अपने, उसे यूँ छोड़, लिखवाई
जो मन्नत मांगते थे बस हमें बेटा हो, बेटा हो
उन्हें बेटी की क़ीमत अब बुढ़ापे में समझ आई
मैं बेटी हूँ, मैं अपनी माँ को अपने साथ ले आई
मेरे भाइयों अगर ज़रा भी इंसानियत और ख़ुदा का खौफ़ बाक़ी है तो अपने बूढ़े वाल्दैन को अकेला ना छोड़ने की कसम खाईये और वो माँ-बाप जो अभी जवान हैं -सिर्फ बेटों की तमन्ना मत कीजिये -बेटियों पर भी भरोसा कीजिये और वो ? जो जन्म से पहले ही बेटियों को मरवा डालते हैं -मेरे इस दावे पर यकीन कीजिए कि आज बेटों से ज़्यादा बेटियां माँ -बाप की देखभाल करती है और काम आती है.
जो अपने घरों में जानवर पाल सकते हैं, माँ -बाप को नहीं वो क्या किसी शैतान ,मुजरिम ,ज़ालिम ,कातिल ,या आतंकवादी से कम गुनहगार हैं ?
"वो कुत्ता पाल सकता है मगर माँ बोझ लगती है"
लानत है...लानत है....लानत है...
जब बात हद से ज्यादा बढती तभी कलम इतने तीखे और बागी तेवर अपनाती है - आभार. सचमुच लानत थू..............है ऐसे बेटों पर.
ReplyDeleteLataji, bilkul sahi kaha hai...vibhakt pariwaron me boodhe maata pita ke liye na samay raha na jagah..har waqt aisi ghatnayen saamne aati hain..jahan,maa ya pita maut ka intezaar karte hain..
ReplyDeleteबता किसके लिए, तूने कमाई थी, यहाँ दौलत
ReplyDeleteमगर जो अस्ल दौलत फ़र्ज़ की थी, वो तो बिसराई
.....अक्ल ठिकाने लगाती आपके अशआर पर मैं मैं खड़े होकर ताली बजाता हूँ.
"वो कुत्ता पाल सकता है मगर माँ बोझ लगती है"
लानत है...लानत है....लानत है....
कुत्ता पालना तो फेशन है , माँ पालना पिछड़ापन ...
ReplyDeleteबहु भी तो किसी की बेटी होती है , अगर वो अपनी माँ को रख सकती है तो पति के माता पिता को क्यूँ नहीं .. ये सब हमें सिखाये हुए संस्कार होते हैं ... वही बात है जो आपने भी कही . हमारे बच्चे भी हमसे संस्कार ले रहे हैं ... कल वो भी वही करेंगे जो हमने उनकी नज़रों को dikhaaya है ....
क्या कहें....................दुखती नब्ज़ है..... यही आधुनिकता है....
ReplyDeleteयही हमारी संस्कृति हो गई है आज..............बहुत खूब...........
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जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड
ये सिर्फ नज़्म नहीं है वो सच्चाई है जो हमारे आस पास पनप रही है, हर बेटी इतनी खुशनसीब/ स्वतन्त्र नहीं होती की अपनी माँ को अपने साथ ले आये.....
ReplyDeleteहमें बहुत गहराई से सोचने को मजबूर करती तल्ख़ लेकिन हकीक़त बयां करती आपकी ये रचना प्रेरक है. इस लाजवाब रचना के लिए आपकी जितनी प्रशंशा की जाये कम ही होगी. वाह..वा...
ReplyDeleteनीरज
"वो कुत्ता पाल सकता है, मगर माँ बोझ लगती है
ReplyDeleteउसे कुत्ते ने क्या कुछ भी, वफ़ादारी ना सिखलाई"
उनके लिए तो आपने बहुत कुछ लिख दिया है!अब हम क्या कहे जी!लानत है ऐसा सोचने,करने वालो पर!परमात्मा सभी को सद्बुद्धि दे!
कुंवर जी,
अपने बूढ़े वाल्दैन को अकेला ना छोड़ने की कसम खाईये
ReplyDeleteज़िन्दगी भी कितनी ज़ालिम है! माँ=बाप से बेहद प्यार करने पर भी उन्हें साथ न रख सकने वाले बेबस खानाबदोश को ये मासूम सलाह भी किसी नश्तर सी चुभती है.
दुनिया की तमाम दौलत -रिश्ते-ऐशो-आराम-एक माँ की कमी को पूरा नहीं कर सकते
ReplyDelete-कितना सही कहा आपने..महसूस करता हूँ रोज इसे.
वो कुत्ता पाल सकता है, मगर माँ बोझ लगती है
उसे कुत्ते ने क्या कुछ भी, वफ़ादारी ना सिखलाई
-बहुत सही झकझोरा है ऐसी औलादों को.
द्रवित कर दिया इतनी मार्मिक पोस्ट लिख कर दीदी.. आशीर्वाद दीजिए की यही बात इस अनुज की कलम में भी आये..
ReplyDeleteबुज़ुर्ग बस दो मीठे बोलों के प्यासे होते हैं .... उनकी इज़्ज़त करनी चाहिए ... बल्कि यदि हम खुद चाहते हैं की हमारे बच्चे बड़े हो कर हमारी सेवा करें तो हमको भी अपने बड़े बुजुर्गों को वही मान देना चाहिए .... नही तॉड़र सवेरे वक़्त पलट कर आएगा ... आपकी ग़ज़ल लाजवाब है ...
ReplyDeletesharm nahin ,lihaaj nahin , ab daya nahin rahi
ReplyDeletesuch toh ye hai lata! logon me haya nahin rahi
"वो कुत्ता पाल सकता है, मगर माँ बोझ लगती है
ReplyDeleteउसे कुत्ते ने क्या कुछ भी, वफ़ादारी ना सिखलाई"
प्रेरक पोस्ट!
सबसे पहले मदर टेरेसा पुरस्कार के लिये बहुत बहुत बधाई.
ReplyDeleteरही बात नज़्म की, इस पर कुछ कह पाने के लिये अल्फ़ाज़ ही नहीं मिल रहे हैं.....आंखें नम कर गये आपके जज़्बात.
बहुत ही जरूरी पोस्ट !!!
ReplyDeleteजो जैसा बीज बोता है, वो फल वैसा ही पाता है
ReplyDeleteबुढ़ापा तुझपे भी आएगा, क्यूँ भूला ये सच्चाई
हाँ यही है सच्चाई पर जानते सब हैं लेकिन मानता कौन है
सुन्दर रचना
मैं निशब्द हूं स्तब्ध हूं इस कुनैनी रचना पर.....
ReplyDeleteवर्तमान के कटु और कुत्सित सत्य को आपने बहुत ही प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्ति दी है अपनी इस रचना में...
ReplyDeleteईश्वर से प्रार्थना है की वे सभी बच्चों को सद्बुद्धि दें और सभी अभिभावकों को भी यह समझने का सामर्थ्य दें कि आज जिसे बेटी समझ वे हीन और तिरस्कृत मानते हैं,जिसे अपनाना,अपने जीवन में लाना नहीं चाहते , उसकी भी अहमियत समझें...
संवेदनशील हृदयस्पर्शी रचना,एक करारा व्यंग ,सच तो यही है .यही है आज के जीवन का यथार्थ दिल में गहरे बैठ गई आपकी ये प्रस्तुती
ReplyDeleteबुज़ुर्ग बस दो मीठे बोलों के प्यासे होते हैं, लाजवाब रचना
लता जी , आपकी 'वो कुत्ता पाल सकता है, मगर माँ बोझ लगती है
ReplyDeleteउसे कुत्ते ने क्या कुछ भी, वफ़ादारी ना सिखलाई' पंक्तियाँ अपने आप में युग -महाकाव्कय हैं।रामेश्व्र काम्बोज हिमांशु'
लता जी , आपकी 'वो कुत्ता पाल सकता है, मगर माँ बोझ लगती है
ReplyDeleteउसे कुत्ते ने क्या कुछ भी, वफ़ादारी ना सिखलाई' पंक्तियाँ अपने आप में युग -महाकाव्कय हैं।रामेश्वर काम्बोज हिमा
लता जी , आपकी 'वो कुत्ता पाल सकता है, मगर माँ बोझ लगती है
ReplyDeleteउसे कुत्ते ने क्या कुछ भी, वफ़ादारी ना सिखलाई' पंक्तियाँ अपने आप में युग -महाकाव्य हैं।रामेश्वर काम्बोज हिमांशु'
बहुत उम्दा रचना। कुछ ख़ास कहने को नहीं है, तारीफ़ चाहे सिर्फ़ एक वाह हो या सैकड़ों अल्फ़ाज़ में - वज़्न वही है।
ReplyDeleteफिर से बधाई!
bahot sundar likhtin hain aap.
ReplyDeleteवो कुत्ता पाल सकता है, मगर माँ बोझ लगती है
ReplyDeleteउसे कुत्ते ने क्या कुछ भी, वफ़ादारी ना सिखलाई
जो जैसा बीज बोता है, वो फल वैसा ही पाता है
बुढ़ापा तुझपे भी आएगा, क्यूँ भूला ये सच्चाई
बहुत खूब कह हया साहेबा
जो समाज हमें ऐसी रचना लिखने की प्रेरणा देता है उसे थोड़ा ठहर कर अपने आप की सार्थकता पर विचार करना चाहिए
ReplyDelete....
"जो अपने घरों में जानवर पाल सकते हैं, माँ -बाप को नहीं वो क्या किसी शैतान ,मुजरिम ,ज़ालिम ,कातिल ,या आतंकवादी से कम गुनहगार हैं ?"
ReplyDeleteयकीनन ऐसे लोगों की जगह इन्हीं लोगों के साथ है. जहन्नुम में.
lanat he aisi aulad per jo maa bap ko sare rah akela chod dete hain.aise logo per khuda ki phitkar
ReplyDeleteउसे कुत्ते ने क्या कुछ भी, वफ़ादारी ना सिखलाई"
ReplyDeleteooffff
kyaa kahaa hai aapne...!!
jaise koi chaantaa lagataa hai...
ReplyDeleteulte haath walaa...!!!
गजब लिखा है आपने...... :)
ReplyDeleteएक जबरदस्त चन्नता लगता है कान के निचे ...
ReplyDeleteबहत खूब लिखा है ...बड़े दिनों के बाद आज रोने को दिल करता है.
कुत्ते से भी बत्तर है उसकी ज़िन्दगी जो ये हकीक़त न समझा...
बहुत ही तीखा लेकिन उतना ही सटीक प्रहार! दिल को छू गया एक एक शब्द!
ReplyDeleteबहुत ही तीखा लेकिन उतना ही सटीक प्रहार! दिल को छू गया एक एक शब्द!
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