Sunday, October 24, 2010
सोचती रही
कभी-कभी अनमनी सी हो उठती हूँ मैं ,कुछ करने को जी ही नहीं चाहता ,गुमसुम सी,दिल-दिमाग़ जैसे कहीं खो जाते हैं,कोई वजह भी तो नहीं होती ,न कोई ग़म , न कोई शिकायत,न कोई सदमा,न दिल टूटने जैसी कोई बात , बस अचानक ही ऐसी कैफ़ियत तारी हो जाती है ।
ये सिलसिला आज से नहीं , सालों से चला आ रहा है, उस वक़्त से जब मै शायद जज़्बातों का ,कुछ बातों का ठीक से मतलब भी नहीं समझ पाती थी । आप यक़ीन जानिए ,जब मै exam देती थी,तब भी अक्सर ऐसा हो जाता था ,जयपुर दूरदर्शन पर news reading करती थी तब भी - बस दिमाग़ ,हाथ ,आँखें अपना काम करती थीं ,"मैं " कहीं और होती थी , news editor mr.Singhvi कहा करते थे - "इसके पास कोई खड़े रहो वरना ये पता नहीं कहाँ चली जाएगी,न्यूज़ की ऐसी-तैसी हो जाएगी। क्या आपके साथ भी कभी ऐसा होता है ?
अब देखिये ना - २ october गया ,commonwealth games आये-गए ,नवरात्र गुज़र गयी ,दशहरा बीत गया लेकिन कुछ पोस्ट करने को दिल ही नहीं हुआ । पता नहीं क्यूँ ? कभी-कभी दिल का चैनल चाहता है कि तसव्वुर के स्क्रीन पर कोई पिक्चर चलाऊं तो दिमाग़ का रिमोट काम नहीं करता , दिमाग़ कुछ ख़यालात download करना चाहता है तो मूड का केबल disconnect हो जाता है - हाथ यादों के रिमोट को पकड़कर कई चैनल चलाना चाहते हैं ; यादों के,बचपन के, रिश्तों के,काम के ,महफ़िलों के,तन्हाईयों के,तकलीफों के ,मेहनतों के लेकिन जोश का ,प्रेरणा का ,दिलचस्पी का fuse उड़ जाता है , दिल सब से मुलाक़ात करना चाहता है तो रूह तन्हाई की मांग करने लगती है ,नज़र कई मौज़ुआत पे पड़ना चाहती है तो पलकें आँख पर पर्दा डाल देती हैं ; ज़िन्दगी सच्चाईयों से इश्क़ करना चाहती है तो सोचो - फिक्र ख़ुदकुशी कर लेते हैं और फिर मैं ही ग़ज़ल और शेरों का वरक़ के बीच रस्ते में ही क़त्ल कर देती हूँ --------- ये honor killing-सा मामला क्या है ? कल रात बस मै यही सोचती रही - सोचती रही - सोचती रही .......
मौज़ूअ रात भर मैं कई सोचती रही
मै थक गयी ,समझ न सकी ,सोचती रही
बेचैनियाँ पहुँच ही गयीं थीं उरूज पर
मै करवटें बदलती रही ,सोचती रही
बादल फ़लक पे आ तो रहा था नज़र मुझे
बरसेगा कब तलक ? मै यही सोचती रही
मै चाह कर भी दे न सकी बद्दुआ उसे
फिर किसकी हाय उसको लगी ,सोचती रही
यूं भी हुआ के छू न सकी मुद्दतों क़लम
लेकिन ग़ज़ल मैं फिर भी नई सोचती रही
गर मिलके बिछड़ना ही लिखा था नसीब में
फिर किस लिए मै उससे मिली ,सोचती रही
तुम ख़ुश रहो ! ये बोल के वो तो चला गया
औ मै वहीं खड़ी की खड़ी सोचती रही
क्या लाज रख सकेंगे "हया" की वो मुस्तक़िल
उसके क़रीब जब भी गयी ,सोचती रही
x-x-x
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
हिंदी में अपने विचार दें
Type in Hindi (Press Ctrl+g to toggle between English and Hindi)
bahut khoobsurat...
ReplyDeleteलता‘हया’जी, जब भी यहाँ आती हूँ,बस सोचती ही रह जाती हूँ-
ReplyDeleteएक ऐसी साधारण भारतीय नारी के बारे में-
"जो अदब में औरत की असाधारण मौजूदगी
और इंसानियत की तरफदार है"
और -"फ़ख्र महसूस करती हूँ कि मैं एक औरत हूँ"......
"शुक्रिया अदा करती हूँ-इस इलेक्ट्रोनिक मीडिया का जिसने खास आदमी तक पहुँचने के असंभव काम को संभव बना दिया"...
मैनें आपको-"इस तौर पर क़बूल किया"...
बादल फ़लक पे आ तो रहा था नज़र मुझे
ReplyDeleteबरसेगा कब तलक ? मै यही सोचती रही
जब अवसाद सघन होगा .. बादल बरस जायेंगे.
वक्त की बेरुखी बहुत सालती है,
ReplyDeleteजिन्दगी एक नया भ्रम पालती है।
AApki gazlon ke kayal to ham shuru se rahe hain....aaj prose padha to aapko khud jaisa hi paaya
ReplyDeleteबादल फ़लक पे आ तो रहा था नज़र मुझे
बरसेगा कब तलक ? मै यही सोचती रही
यूं भी हुआ के छू न सकी मुद्दतों क़लम
लेकिन ग़ज़ल मैं फिर भी नई सोचती रही
love these
regards,
Priya
और मैं सोच रही हूँ क्या कमेन्ट दूँ सोच रही हूँ सोच रही हूँ सोच------ सोच कर आते3ए हूँ\ अभी निश्बद।
ReplyDeleteमै चाह कर भी दे न सकी बद्दुआ उसे
ReplyDeleteफिर किसकी हाय उसको लगी ,सोचती रही
एक "इन्सान" की ख़ुसूसियत शायद ये भी है कि वो बद्दुआ दे ही नहीं सकता और इसी सब्र का जवाब अल्लाह देता है
तुम ख़ुश रहो ! ये बोल के वो तो चला गया
और मै वहीं खड़ी की खड़ी सोचती रही
वाह!सादा से अल्फ़ाज़ में इस कैफ़ियत को शेर में ढालना..........
कमाल है!
Behtreen Gajal.....
ReplyDeleteMarch me kavi sammelan karwa raha hoon...kripa contact no. de..... awam marg vye bhi likhe...
ReplyDeletewww.rajeevmatwala@gmail.com
visit site:-www.rajeevmatwala.in
मोहतरमा लता साहिबा, आदाब.
ReplyDeleteबहुत उम्दा ग़ज़ल है, मुबारकबाद...
मै चाह कर भी दे न सकी बद्दुआ उसे
फिर किसकी हाय उसको लगी ,सोचती रही
कुदरत का इंसाफ़ यही तो है...
गर मिलके बिछड़ना ही लिखा था नसीब में
फिर किस लिए मै उससे मिली ,सोचती रही...
सवाल लाजवाब है...
एक बार फिर बेहतरीन कलाम के लिए मुबारकबाद कुबूल फ़रमाएं.
लता जी, 24 सितम्बर को आँख का आप्रेशन हुआ तो डॉक्टर ने कुछ दिन कम्प्यूटर से दूर रहने की सलाह दी। फिर 12 अक्तूबर से नेट की कनेक्टिविटी की प्रॉब्लम। आज नेट चला तो आपके ब्लॉग पर आया। आपकी पोस्ट और ग़ज़ल पढ़ी। आप शायरी ही अच्छी नहीं करती है बल्कि आपका गद्य भी ध्यान खींचता है। इस पोस्ट में आपके गद्य की खूबसूरत मिसाल देखने को मिलती है। आपकी ग़ज़ल का यह शे'र दिल से हटता नहीं है-
ReplyDeleteयूं भी हुआ के छू न सकी मुद्दतों क़लम
लेकिन ग़ज़ल मैं फिर भी नई सोचती रही
यही दुआ करता हूँ कि आपका यह सोचना निरंतर चलता रहे…
सुभाष नीरव
आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ, बहुत कुछ छूट गया है अब पढ़ते हैं।
ReplyDeleteबड़ी सादगी से शेर कहे हैं आपने,पढ़कर अच्छा लगा.
ReplyDeleteगज़लें कहती हैं आप, इसलिए:_
करम मुझ पर ज़रा फरमाइयेगा,
कि मेरे ब्लॉग पर भी आइयेगा.
कुँवर कुसुमेश
blog:kunwarkusumesh.blogspot.com
बहुत उम्दा ग़ज़ल... जीवन को कितनी सूक्षमता से देखती हैं आप.. बहुत बढ़िया...
ReplyDeleteज़िदगी के कुछ अनछुए पहलुओं को आपने सुंदर शब्द दिए हैं....अच्छा लगा...बधाई।
ReplyDeletekhushkismati hai ki aapko padhne ka mauka milta hai!
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteतुम्हारी सोच और लेखन शायरी से कम नहीं...
ReplyDelete"कभी-कभी दिल का चैनल चाहता है कि तसव्वुर के स्क्रीन पर कोई पिक्चर चलाऊं तो दिमाग़ का रिमोट काम नहीं करता , दिमाग़ कुछ ख़यालात download करना चाहता है तो मूड का केबल disconnect हो जाता है - हाथ यादों के रिमोट को पकड़कर कई चैनल चलाना चाहते हैं ; यादों के,बचपन के, रिश्तों के,काम के ,महफ़िलों के,तन्हाईयों के,तकलीफों के ,मेहनतों के लेकिन जोश का ,प्रेरणा का ,दिलचस्पी का fuse उड़ जाता है"
लाजवाब...इन लफ़्ज़ों के दिलकश गुलज़ार से बाहर आऊं तो गज़ल तक पहुँचने की सोचूं ..वैसे ऐसा तुम्हारे साथ ही होता है ये मत सोचना...ये उन सबके साथ होता है, जिनके सीने में दिल धड़कता है...दिल ऐसे ही तो धड़कने के बहाने ढूँढता है...
अब गज़ल पढ़ी है तो मन में तुम्हारे लिए सिवा दुआ के और कुछ आ ही नहीं रहा...कमाल कि शायरी है...वाह...खुश रहो..आबाद रहो...लिखती रहो...
नीरज
कभी-कभी दिल का चैनल चाहता है कि तसव्वुर के स्क्रीन पर कोई पिक्चर चलाऊं तो दिमाग़ का रिमोट काम नहीं करता , दिमाग़ कुछ ख़यालात download करना चाहता है तो मूड का केबल disconnect हो जाता है -इसीलिए कहती हूँ high speed connection ( हम जैसे चाहने वाले पाठकों ) के contact में रहा कीजिये .....ये नौबत ना आएगी :)
ReplyDeleteतभी मैं सोचू कहाँ खो गई आप!! न कोई पोस्ट ना कोई अपडेट ....कई दिन गुज़र गए मेरे ब्लॉग पर भी ना आना हुआ .....और आप बस सोचती रही :)
कामल की ग़ज़ल है ....हमेशा ही की तरह ! आपको पढ़ना हमेशा ही बहुत अच्छा लगता है
मै चाह कर भी दे न सकी बद्दुआ उसे
फिर किसकी हाय उसको लगी ,सोचती रही
गर मिलके बिछड़ना ही लिखा था नसीब में
फिर किस लिए मै उससे मिली ,सोचती रही.
क्या कहने ....बेहतरीन !
Ghazal to behtareen lagi hi ..
ReplyDeleteaap ka ye kahnaa ..khaas pasand aaya....फिक्र ख़ुदकुशी कर लेते हैं और फिर मैं ही ग़ज़ल और शेरों का वरक़ के बीच रस्ते में ही क़त्ल कर देती हूँ !
लीजिये,मुझे लगता था,यह केवल मेरे साथ ही होता है...
ReplyDeleteबड़ी तस्सल्ली मिली...और भ्रम भी दूर हुआ कि यह कोई बीमारी नहीं...
लेकिन एक बात है...न सोचने के क्रम में भी आपने जो सोच डाला न....माशा अल्लाह !!!!
यही तो बात होती है.....हुनरमंद कलाकार सांस भी लें न, तो सलीके से ही लेंगे और वह रिदम में होगा,कला का कोई नायाब नमूना अपने आप गढ़ा जायेगा..
भावपूर्ण बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल रची है आपने...
वाह जी, क्या बात है...आनन्द आ गया.
ReplyDeleteमैं चाह कर भी दे न सकी बद्दुआ उसे
ReplyDeleteफिर किसकी हाय उसको लगी सोचती रही
हासिले-ग़ज़ल शेर है लता............बहुत खूब
waah.. shaandar gazal kahi hai, nazuk khayal aur khoobsurat adaygi.. sabhi sher acche lage.. :)
ReplyDeletekitna sunder likhtin hain aap.bahot achcha laga.
ReplyDeletebahut khoobsurat gazal ... taseer aisi ki dil mein utar gayi ... shukriya share karne ke liye ...
ReplyDeleteBahut khub Ek ajab sa dard hai aap ki gajalon mein . Goya hum bhi sochane par majboor ho gaye.
ReplyDeletevery gud...
ReplyDeleteमैं चाह कर भी---
ReplyDeleteतुम ख़ुश रहो ये बोल के वो तो चला गया
और मैं वहीं खड़ी की खड़ी सोचती रही।
बेहतरीन अशआर, ख़ूबसूरत ग़ज़ल मुबारकबाद।
(आपने संपूर्ण गज़ल बहरे मुजहिरा में मुकम्मल लिखा है,शायद जान बूझकर अन्तिम लाइन में *और*शब्द से *र* हटाने का मोह छोड़ नहीं पाईं।
bahut behtareen ghazal..
ReplyDeletebahut achhi gajal hai aap ki
ReplyDeleteबहुत उम्दा ग़ज़ल,बहुत खूब ....
ReplyDeleteदीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं।
सराहनीय लेखन........
ReplyDelete+++++++++++++++++++
चिठ्ठाकारी के लिए, मुझे आप पर गर्व।
मंगलमय हो आपके, हेतु ज्योति का पर्व॥
सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी
भावपूर्ण अभिव्यक्ति........दीपावली की शुभकामनाएं.....
ReplyDeleteयूं भी हुआ के छू न सकी मुद्दतों क़लम
ReplyDeleteलेकिन ग़ज़ल मैं फिर भी नई सोचती रही
बहुत खूब लता जी.
ज़िदगी के कुछ अनछुए पहलुओं को आपने सुंदर शब्द दिए हैं....अच्छा लगा...बधाई।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteइस ग़ज़ल के शेर...
ReplyDeleteकिस शेर पर कहूँ मैं, किस पर रहूँ मैं चुप,
हर शेर पर ठहरके यही सोचता रहा।
बेहतरीन ग़ज़ल।
मौज़ूअ रात भर मैं कई सोचती रही
ReplyDeleteमै थक गयी ,समझ न सकी ,सोचती रही
बेचैनियाँ पहुँच ही गयीं थीं उरूज पर
मै करवटें बदलती रही ,सोचती रही
बादल फ़लक पे आ तो रहा था नज़र मुझे
बरसेगा कब तलक ? मै यही सोचती रही
यूं भी हुआ के छू न सकी मुद्दतों क़लम
लेकिन ग़ज़ल मैं फिर भी नई सोचती रही
गर मिलके बिछड़ना ही लिखा था नसीब में
फिर किस लिए मै उससे मिली ,सोचती रही
क्या लाज रख सकेंगे "हया" की वो मुस्तक़िल
उसके क़रीब जब भी गयी ,सोचती रही
लता जी !
मैं बज्म में आ क्या कहूं सोचता रहा
सुनता रहूं कि वाह कहूं सोचता रहा
किस शेर पै वल्लह कहूं किस शेर पै लिल्लाह
किस शेर को चुनूं, न चुनूं सोचता रहा
क्या लाजवाब वज़्नो बहर आपने चुनी
बहते रहूं ,डूबूं या तिरूं सोचता रहा
है दाद के काबिल हया की हर अदायगी
मैं कुछ कहूं ,कहूं न कहूं सोचता रहा
बहुत खूब....
ReplyDeleteप्यारी गज़ल है...यह शेर तो बेहद उम्दा...
तुम ख़ुश रहो ! ये बोल के वो तो चला गया
औ मै वहीं खड़ी की खड़ी सोचती रही
बेहतरीन ग़ज़ल !
ReplyDelete-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
मै चाह कर भी दे न सकी बद्दुआ उसे
ReplyDeleteफिर किसकी हाय उसको लगी ,सोचती रही
यूं भी हुआ के छू न सकी मुद्दतों क़लम
लेकिन ग़ज़ल मैं फिर भी नई सोचती रही
तुम ख़ुश रहो ! ये बोल के वो तो चला गया
औ मै वहीं खड़ी की खड़ी सोचती रही
jab bhi aapko padha ..bas sochta raha
daad kubool karen
बहुत खूबसूरत
ReplyDeleteमुझे ग़ज़ल बहुत पसंद हैं लेकिन उर्दू जरा कमजोर है . आप से गुजारिश है कुछ और कठिन शब्दों का अर्थ भी लिखे .
ReplyDelete