Saturday, December 19, 2009

बिग बॉस का घर

ये इस साल की मेरी आखरी पोस्ट है ;चाहती तो हूँ कि हर हफ़्ते बल्कि हर दूसरे दिन कुछ न कुछ पोस्ट करूँ लेकिन हर रचना लोगों की राय से वाकिफ़ होना चाहती है ,ये उसकी ख्वाहिश भी होती है और एक कसौटी भी लेकिन ये भी एक कड़वा सच है कि आज इंसां के पास वक़्त ,नेकियों के अलावा और बहुत कुछ है ;ऐसे में आप ,हम मुबारकबाद के मुस्तहक़ हैं जो एक दूजे से तबादला-ए-ख़यालात कर लेते हैं मगर ये भी इंसानी फ़ितरत है कि जब वो घूमने निकलता है तो जो दोस्त क़रीब रहते हैं उनसे तो मुलाक़ात करते चलता है लेकिन जो रिश्तेदार दूर रहते हैं उनके लिए '' फिर मिल लेंगे '' सी सोच रखता है ;सही कहा ना? वैसे ही हम किसी के ब्लॉग पर जाकर लेटेस्ट पोस्ट तो पढ़ लेते हैं और पुरानी पोस्ट के लिए सोचते हैं "फिर पढ़ लेंगे" ये बात मुझ पर भी लागू होती है इसलिए मैं कुछ वक़्त तक इंतज़ार करती हूँ "फिर मिलने वालों" का .पर हैरत तो मुझे तब होती है जब कोई मुसाफ़िर भटकते,भटकते या खोजते-खोजते प्रथम पोस्ट तक पहुँच ही जाता है,मुशायरे,कवि-सम्मलेन के लास्ट तक बैठे रहने वाले आखरी श्रोता की तरह,ऐसे हैरतज़दा करने वाले अदीबों का तो मैं जितना भी शुक्रिया अदा करूँ ,कम है ;हालाँकि हैं ऐसे भी जुनूनी ,सबूत मौजूद हैं आपके मेरे ब्लॉग पर. यही लोग जज़्बा पैदा करते हैं रोज़ कुछ कहने का लेकिन बात फिर वहीँ पहुँच जाती है कि हर रचना कुछ वक़्त चाहती है

तो इसीलिए मेरी इस साल की ये अंतिम ग़ज़ल निकली है लम्बे इंतज़ार के बाद ठीक उसी तरह जैसे हमारे कुछ महान नेता निकले थे अपने -अपने बिलों से 26/11 के आतंकवादी हमले के इतने दिनों बाद जब सब कुछ सामान्य हो चुका था और वक़्त था क्रेडिट लेने का कि हमारी वजह से .हमारे प्रांत ,हमारी ज़ात ,भाषा वाले सैनिकों ने ये किया...वो किया और सियासत शुरू हो गयी शहीदों की शहादत पर .इसीलिए ये ग़ज़ल उसी आतंकवादी हादसे की अगली कड़ी और उसके बाद होने वाली राजनीति की एक प्रतिक्रिया है .मैं पुनः तमाम हिन्दुस्तानी कमांडोज़ और शहीदों का आभार व्यक्त करते हुए नज्र कर रही हूँ हम भारतवासियों का दर्द ,रोष .अफ़सोस ,सवाल ...और आगामी नव-वर्ष की अग्रिम शुभकामनाओं के साथ अंतिम पेशकश .



'देश' ख़तरे में हो तो छुप जायेंगे ,डर जायेंगे
'कुर्सियां' ख़तरे में हों फिर मार दें ,मर जायेंगे

जब ख़बर आती है के हालात अब क़ाबू में हैं
पुरसिशे-हालात को ये तब निकलकर जायेंगे

रोटियाँ लाशो पे कितनी सेक कर ये खा चुके
इतने भूके हैं के अब तो देश भी चर जायेंगे

किस तरह ख़ुद को बचाएं जब कहें ख़ुद नाख़ुदा
हम तो डूबेंगे सनम तुम को भी लेकर जायेंगे

ये शेर उन मासूम परिंदों को समर्पित जो हमले में घायल हुए या मारे गए .पर आज भी सैंकड़ों की तादात में सुबह -शाम ताज होटल पर उनके हमकौम सफेद कबूतर नज़र आते हैं ,आतंक का जवाब बनकर ;

खौफ़ हो,पहरे हों पर ये "शाहजहाँ के हमवतन"
ताज के दीदार को अब भी कबूतर जायेंगे

बम फटा,सत्यम घटा ये तो अभी है जनवरी
हादसे कितने दिसम्बर तक यूँ चलकर जायेंगे

ये शेर मैंने साल की शुरुआत में जिस शंका के साथ कहा था वो गलत नहीं थी .ना जाने ये साल कितने हादसात झेल चुका है और जाते जाते अलग राज्यों ..तेलंगाना,विदर्भ से ज़ख्म दे रहा है,और अब ग़ज़ल का आखरी शेर ..कहावत यूँ है के "ज़र,ज़मीं,जेवर और जोरू कुछ ना साथ जाएगा" ये बात तो हम औरतें भी जानती हैं और हम पर भी लागू होती है तो मैंने इसमें एक छोटा सा संशोधन किया है और अपनी अदीब बहनों को नज्र करती हूँ

किसलिए हिर्सो-हवस मालूम है जब साथ में
ज़र,ज़मीं,दौलत के ज़ेवर और ना 'शौहर' जायेंगे

और मक़ता देखिये ;वैसे भी इन दिनों रोज़ देख ही रहे हैं कलर्स चैनल पर,

ये अदब की बज़्म है 'बिग बॉस का घर' तो नहीं
बाहया घर से चले थे बा'हया'घर जायेंगे

पुरसिशे -हालात = हाल चाल जानना .
हिर्सो-हवस = लालच
ज़र = सोना
नाख़ुदा = नाविक
हमवतन = एक ही देश के


हमारा ये अदबी जहाँ बेहयाई से बचा रहे [ यही फ़र्क़ है अदब और ग्लैमर में ] और हर सूरत में बा हया रहे इसी दुआ के साथ आपको नए साल की अग्रिम हार्दिक शुभकामनायें .

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