Thursday, November 26, 2009

हर कोई है ग़मज़दा


बहुत तवील सफ़र रहा और काफी तकलीफदेह भी,हर कोई हैरान और परेशां,बहुत सी दास्तानें सुनाना बाक़ी है और आप सबको पिछली पोस्ट का जवाब देना भी,लेकिन आज नहीं क्योंकि आज से ठीक एक साल पहले मेरे शहर मुंबई ने आतंक और खौफ़ का ऐसा सफ़र तय किया था जिसकी वहशतनाक दास्ताँ ने न केवल हिन्दुस्तान बल्कि तमाम दुनिया को हिला कर रख दिया था आज भी शहीदान के परिवारवाले और अपनों को खोने वाले जिस कर्ब और तकलीफ़ से गुज़र रहे होंगे उसकी कल्पनामात्र से ही कलेजा मुंह को आ जाता है,अल्लाह उनकी रूह को सुकून और उनके परिवार को हौसला दे.

वक़्त बीत गया लेकिन मेरा शहर .मेरा वतन ......आह ! उनके लिए जाँ-निसार करने वालों की याद में आज तक सिसक रहा है मैं तमाम ब्लोग्गर्स की तरफ से उन शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करती हूँ जो ज़ात प्रांत,मज़हब,भाषा से ऊपर उठकर अपने देश और अपने देशवासियों के लिए जान पर खेल गए:

आज तमाम मुम्बईकर इसी दर्द भरी कैफियत से गुज़र रहे होंगे....

आजकल मेरा शहर आराम से सोता नहीं
हर कोई है ग़मज़दा ख़ुश,कोई भी होता नहीं

हम अगर मज़हब,सियासत को जो रखते अलहदा
फिर कोई इंसानियत को इस क़दर खोता नहीं

धर्म ने ये कब कहा रंग दो ज़मीं को खून से
कोई मज़हब बीज नफ़रत के कभी बोता नहीं

दीन,ईमां,ज़ात कब होती है दहशतगर्द की
ये किसी का बाप,शौहर,भाई और पोता नहीं

ये शहादत का भला है कौन सा रस्ता नया ?
क्यों कोई बच्चों के ज़हनों से भरम धोता नहीं

जाने कैसे संगदिल आक़ा हैं ये आतंक के
देखकर जिनका तबाही दिल कभी रोता नहीं

अस्ल सैनिक सिर्फ अपने देश का होता''हया'
वो बिहारी और बस महाराष्ट्र का होता नहीं

अल्हदा=अलग,तवील=लम्बा,कर्ब=कष्ट,


'काश' !!! दुनियां से जुर्म,आतंक,फिरकापरस्ती,सरहदें,स्वार्थ और नफरतें हमेशा-हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएं... "काश"?

Saturday, November 21, 2009

शाख़ से फूल की तरह झरती गई


कल से तीन दिनों तक मुंबई से बाहर हूँ. मुशायरे के सिलसिले में आजमगढ़ और पटना जाना है. सोचा तो था के आ कर कुछ नया पोस्ट करुँगी, के तभी तुलसी भाई पटेल जी का मेल आया के लता जी आपकी पोस्ट का इंतज़ार है.उन्हें जवाब देना चाहा लेकिन विफल रही, फिर सोचा की लैपटॉप बंद कर दूं लेकिन दिल नहीं माना,क्यूँ की वापस आकर भी दो दिसंबर तक शूटिंग में व्यस्त रहूंगी इसलिए मुझे लगा की तब तक बहुत देर हो जायेगी तो लीजिये पेश हैं एक छोटी सी ग़ज़ल आप सबकी मुहब्बतों के नाम, जिसका श्रेय तुलसी भाई पटेल जी को देना चाहूंगी.

(मतला हिंदी को तमाशा बनाने वालों के नाम एक जवाब के तौर पर आप तमाम हिन्दीप्रेमियों की तरफ से)

ज़िन्दगी चाहे जितनी बिखरती गयी
पर मैं 'हिंदी' की तरह संवरती गयी

हाथ में एक दर्पण अदब का भी है
देख कर जिसमें ख़ुद को निखरती गयी

उसने चाहत का इज़हार जब भी किया
मैं सियासी अदा से मुकरती गयी

ज़िक्र जब भी सियासत का करने लगूं
डायरी मेरी पल में सिहरती गयी

उसकी महकी हुई सोहबतों में 'हया '
शाख़ से फूल की तरह झरती गयी

Tuesday, November 10, 2009

गोपियाँ रक्स करती रहीं


दीपावली जा चुकी लेकिन ब्लॉग जगत अब भी रौशन है आप अदीबों के ज़हनी चरागों से निकली अशआर की रौशनी से ;दीपावली इतनी शायराना होगी सोचा न था ;आयोजक थे सुबीर जी और मुझे आमंत्रित करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी नीरज गोस्वामी जी को जो हैं तो मेरे ममेरे भाई लेकिन सगे से बढ़ कर. अभिनय और शायरी का शौक़ उधर से ही इधर हस्तांतरित हुआ है ;वो भी एक लम्बी दास्ताँ है जो बाद में बताउंगी ,हालांके बहुत सी दास्तानें सुनाना बाकि है जिनका मैंने वादा किया था ;क्यों नहीं सुना पायी ये भी ये भी 'बाद में बताउंगी ' :))

भैय्या के कहने पर पहले तो मैंने टालमटोल से काम लिया लेकिन फिर सोचा की दिमागी मशक्क़त भी ज़रूरी है जैसा कि मैंने सुबीर जी के ब्लॉग में लिखा है के खुद को आज़माते रहना चाहिए तो बस तरही मुशायरे में शामिल होने का सोचा और इक ग़ज़ल हो गयी वो ज़माना याद आ गया जब मेरे गुरु मरहूम राही शहाबी मुझे मिसरा दिया करते थे मश्क़ के लिए और जब मैं शेर कहती थी तो डांट मिलती थी 'ये कोई शेर है ?'हालाँकि बहुत कम समय तक उनका मार्गदर्शन रहा क्योंकि उनकी और मेरी फिक्रो -सोच में काफी फ़र्क़ था ;जो अक्सर एक मर्द शायर और महिला शायर की सोच में हो सकता है और होना भी चाहिए तो बस इस्लाह का सिलसिला ख़त्म हो गया और मैं जयपुर से मुंबई आ गयी. अलिफ़ लैला सीरियल में अभिनय करने ;तब से एक अरसे बाद अब किसी तरही मुशायरे में हिस्सा लिया है और यकीन जानिए बहुत लुत्फ़ आया.

आपकी दुआओं ने ताजगी दी ;गोके आप मेरी ये ग़ज़ल सुबीर जी के ब्लॉग में पढ़ चुके हैं लेकिन एक बार फिर शाया कर रही हूँ अपने ब्लॉग में भी कुछ और ताजा अशआर के साथ तो ग़ज़ल का मतला समात फरमाएं ;

जब अँधेरे अना में नहाते रहें
दीप जलते रहें ,झिलमिलाते रहें

रात लैला की तरह हो गर बावरी
बन के मेहमान जुगनू भी आते रहें

रुह रौशन करो तो कोई बात हो
कब तलक सिर्फ चेहरे लुभाते रहें ?

इक पिघलती हुई शम्म कहने लगी
उम्र के चार दिन जगमगाते रहें

फ़िक्र की गोपियाँ रक्स करती रहीं
गीत बन श्याम बंसी बजाते रहें

कोई बच्चों के हाथों में बम दे चले
वो पटाखा समझ खिलखिलाते रहें

दूध ,घी ,नोट ,मावा के दिल हो "हया".
अब तो हर शै मिलावट ही पाते रहें

नोट;;लैल रात को कहते हैं और रात काली होती है ;लैला का नाम इसीलिए लैला हुआ के वो काली थी
अना -घमंड
रक्स -नृत्य

और ये वो शेर हैं जो हो तो गए थे लेकिन मैंने उस पोस्ट में भेजे नहीं थे वो भी सुन लीजिये...मतले में तरमीम के साथ ...

अब चलो खुद को यूँ आज़माते रहें
शेर कहते हुए मुस्कुराते रहें

मश्क़ भी है ज़रूरी यही सोच कर
हम गिरह प गिरह इक लगाते रहें

रात भी ढल चुकी चाँद भी जा चुका
हम घड़ी को कहाँ तक मंनाते रहें

जब कमाना भी है ,घर चलाना भी है
क्या संवरते औ ख़ुद को सजाते रहें

प्यार की रौशनी और शफ्फाफ़ हो
गर वफ़ा में हया भी मिलाते रहें
.

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